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________________ इन गणों वाले गायकों को श्रेष्ठ, इनमें से कुछ गुणों से हीन परन्तु दोषरहित गायकों को मध्यम तथा एक भी दोष से युक्त गायक चाहे सर्वगुणसम्पन्न क्यों न हो उसे अधम गायक माना जाता है। गायक के मूलत: पांच भेद हैं । (१) शिक्षाकार, (२) अनुकार, (३) रसिक, (४) रंजक तथा (५) भावक । इनका विवरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है : (१) शिक्षाकार-बिना किसी न्यूनता के सर्वविध गायन विधाओं को सपदि शिक्षित कर सकने वाला'। टीको प्रकार भी विवृत किया जा सकता है कि जो "शद्ध अर्थात गार्गी तथा सालग अर्थात् देशी सूडों को शीघ्रता से विषम एवं प्रांजल गीत को सिखा सकता । (२) अनुकार-दूसरे गायकों की गान भङ्गिमाओं का अनुकरण करने वाला। (३) रसिक-गायन समय में गीत के रस से आविष्ट होकर रसपूर्ण गायन करने वाला। ऐसे समय में श्र संकीर्ण तथा पुलकित भी हो सकता है। (४) रंजक-जनमनरंजन करने वाला। संगीतसमयसार में इसका सुविस्तृत वर्णन यों किया गया है कि जो "मनभावन गीत के द्वारा श्रोता का मनोभाव समझकर गीत में नाट्य के अंश को भी सम्मिलित करके उसे रंजक बना देता है वास्तव में उसे रंजक कहते हैं । भावक श्रोता के अभिप्राय को जानकर नीरस को सरस तथा भावहीन को भावान्वित करके गाने वाला भावक कलाकार दृष्टव्य है कि इस सम्पूर्ण गायक भेद प्रसंग में कल्लिनाथ तथा सिंहभूपाल इन दोनों की टीका उपलब्ध सिंहभूपाल इस प्रकरण में मात्र संगीतसमयसार को उद्ध त करके व्याख्या करते हैं।" गायन की क्षमता के अनुसार गायक को पुनः तीन भेदों में बांटा गया है: (१) एकलगायक, (२) यमलगायक की वृन्दगायक । इनका विवरण" नामानुसारी है (१) एकलगायक-वह गायक जो एकाकी गायन में सक्षम है, इसी को आंग्लभाषा में Solo singer कहते हैं। (२) यमल-जो दो गायक मिल कर गा सकते हों उन्हें यमलगायक कहते हैं । आंग्लभाषा में आजकल इस विधाको Duet कहा जाता है। (३) वन्दगायक-जो गायक समूह के साथ गायन में सक्षम हो । गायन की इस विधा को आंग्लभाषा में Choran Singing कहा जाता है। गायन में सृष्टि के आरम्भ से ही स्त्रियां भी प्रमुखतः भाग लेती रही हैं। अतः गायकों के उक्त वणित गुण अथवा वण्य दोष गायिकाओं में भी यथावत् समझे जाने चाहिये परन्तु गुणों की संख्या करने पर जो गुण उनमें अधिक होने चाहिये वे हैं १. संगीतरत्नाकर प्रकीर्णकाध्याय, १८-१९. २. वही, १९-२० ३. बही, २०. ४. संगीतसमयसार,६.६१-६२. ५. संगीतरत्नाकार, प्रकीर्णकाध्याय-२१. संगीतसमयसार, ६.६२-६३. ७. संगीतरत्नाकर, ३.२१. संगीतसमयसार, ६.६४-६५. ६. वहीं, ६. ६३-६४. १०. संगीतरत्नाकर भाग-२, पृष्ठ १५६. ११. वहीं, प्रकीर्णकाध्याय-२२, २३. २१४ आचार्यरत्त श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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