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________________ "अनुतार से परवर्ती स्वरों में एक भूतिप्रस्थसन (स्वर का कम रह जाना) आदि होने पर भी जिस गायक की ध्वनि की गाढ़ता- सघनता कम नहीं होती है उसे धारणा शक्ति के नाम से संगीतशास्त्रियों ने स्वीकार किया है ।" सामान्य रूप में यदि इसे यू कहा जाय कि जिस गायक की "अनुतार" गायन में भी ध्वनि कमजोर न पड़े वह धारणान्वित गायक होता है। चाहे इस गायन में राग का अभीष्ट स्वर न लग रहा हो ! (२०) स्फूर्जन्निर्जवन : "निर्जवन " पद की व्याख्या दो प्रकार से प्राप्त होती है । सामान्यतः जो अर्थ सर्वमान्य है वह है "अप्रतिहतगतित्व" । " इसका एक अपर स्वरूप संगीतसमयसार ने दिया है वह है "श्वास पर विजय प्राप्त करके गाना निर्जवन कहलाता है ।" ये दोनों व्याख्याएं' गायकनिष्ठ हैं । शास्त्रनिष्ठ अथवा प्रबन्धनिष्ठ व्याख्या के अनुसार "वे स्थाय जिनमें स्वर क्रमशः अतिसूक्ष्म स्वरूप को प्राप्त करता जाता है, सरलता, कोमलता तथा रक्तिमत्व गुणों से युक्त होता है, निर्जवनान्वित स्थाय कहे जाते हैं ।"" तस्त्वदृष्ट्या विचार करने पर यह भी गायकनिष्ठ वस्तु हो जाती है - "जो गायक स्थायों का प्रयोग करते समय स्वर में सरलता, कोमलता तथा रक्तिमत्त्व को बनाए रखकर स्वर को क्रमशः अतिसूक्ष्मता की ओर ले जाता है वह निर्जवनान्वित है और यह कार्य श्वाससाध्य है अतः इस कार्य के लिये अप्रतिहतगतित्व एवं जितश्वासत्व आवश्यक हैं । (२१) हारि : जिसका गायन मन को हरण कर लेने वाला हो । (२२) रहःकृत : इस पद की व्याख्या में संगीतरत्नाकर के दोनों टीकाकारों का मत भिन्न है । सिंहभूपाल के अनुसार "रहः कृत्" का तात्पर्य वेग से गायन करना है ।" जो वास्तव में "निर्जवन" के वर्णन के प्रसंग में कल्लिनाथ द्वारा स्वीकृत अर्थ है । कल्लिनाथ के अनुसार "र" पद का तात्पर्य खोजनमोहन' है अतः श्रोतृजमोहनकारक गायक को रहःकृत कहना चाहिये। वास्तव में यह अर्थ भी मूल में उक्त "हार" पद के द्वारा प्रकट हो चुका है या तो काम में हार को पृथक् न मानते हुए "हारिरहः कुद्" यह एक पद मानकर इसका तात्पर्यार्थ श्रोतृजनमोहन ले लिया है अन्यथा “हारि" का भी अर्थ मनोहारि करना तथा पुनः रहःकृत से भी श्रोतृजनमोहन अर्थ प्रकट करना संभवतः ग्रन्थकार आचार्य शार्ङ्गदेव तथा अन्य आचार्यों को भी अभीष्ट न होगा क्योंकि यह मात्र पिष्टपेषण ही है । इसी प्रकार " निर्जवन" तथा "रहःकृत्" इन दोनों पदों का अर्थ वेग से गायन करना भी पिष्टपेषण ही है । इन सभी प्रकार के अर्थों को एक तरफ रखकर यदि हम एक अन्य दृष्टि से विचार करें तो पाते हैं कि रहस् का तात्पर्य मैथुन अथवा रति होता है ।" अतः जिस प्रकार कोई मानव रत्यर्थ उपस्थित स्त्री के साथ स्नेह से व्यवहार करता है उसी प्रकार गायनविधा के प्रकटन के समय स्वरों वर्णों आदि के साथ स्नेहिल व्यवहार करने वाला "रहः कृत्" हो सकता है । भावार्थ यह है कि गायक को गायन के समय सान्द्रध्वनि का प्रयोग करना चाहिये । (२३) भजनोद्धुर : सुशारीर ध्वनि के कारण राग की सुन्दर समभिव्यक्ति को भजन कहा जाता है ।" इसमें उत्कट अर्थात् प्रचंड प्रवीणला वाला । इसी भजन का उपलब्ध संगीतसमयसार में भजवणा के नाम से उल्लेख किया गया है। (२४) संप्रदाय जिसका सुप्रतिष्ठित संप्रदाय से संबंध हो । यही संप्रदाय परम्परा संभवतः परवर्ती एवं आधुनिक काल में घरानों के नाम से अभिहित की गई है। १. संगीतसमयसार ३.९२ (धरणि के नाम से उक्त है) २. संगीतरत्नाकर भाग दो, पृष्ठ १५४ कल्लिनाथी टीका । संगीत समयसार ३८८ ( निजवण के नाम से उक्त है) ३. ४. संगीतरत्नाकर प्रकीर्णकाध्याय, १४५-४६. ५. संगीत रत्नाकार भाग दो, पृष्ठ १५६ सिंहभूपाल की टीका । ६. वही, पृष्ठ १५५, कल्लिनाथी टीका. ७. इंग्लिश हिन्दी डिक्सनरी द्वारा गोडे और कवें । ८. संगीतरत्नाकर भाग २. सिंहभपाल टीका, पृष्ठ १५६. ६. संगीतसमयसार, ३.८८ जैन प्राच्य विधाएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only २१३ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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