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________________ सभापति :-- __परम्परा तथा उपलब्ध वृत्तान्तों के आधार पर सभापति साधारणतया राजा ही होता है। संभवतः इसलिये क्योंकि राजा का निर्णय सर्वमान्य होता है तथा निर्णय के उल्लंघन की धष्टता करने वाले के प्रति राजा दण्डपात भी कर सकता है। लेकिन सभापति एवं निर्णायक-मण्डल-अध्यक्ष के रूप में राजा में कुछ गुण वांछनीय हैं जिनके अनुसार राजा, चित्रविचित्र-सुन्दर-वितानों से आच्छादित सुगन्धित सभास्थल में पूर्वाभिमुख-सिंहासन पर आरूढ़ हो श्रीमान्, दाता, गुणग्राहक, भावज्ञ, कीर्तिलम्पट, सत्यवक्ता, शृगार करने वाला, मार्गी एवं देशी द्विविध संगीत का सम्यक् ज्ञाता, बुद्धिमान, सर्वकलाध्यक्ष, पारितोषिक देने वाला संगीतादिगणदोषज्ञ, सर्वभाषाभिज्ञ एवं प्रियवक्ता हो।' सभ्य : सभ्यों में अनेकविध दर्शक एवं विद्वान अभीष्ट हैं। वे हैं : (१) महारानी, (२) विलासिनी नारियां, (३) सचिव, (४) दर्शक, (५) कवि, (६) रसिक । इन का विवरण अध:प्रकार से किया जा सकता है। १. महारानी राजा के वामभाग में स्थित, रूपयौवनसंपन्ना सदाशृगारलोभिनी, सौभाग्यवती, पति के मन तथा नेत्रों के भावों के अनुसार आचरण करने वाली। २. विलासिनी नारियां रूप यौवन सम्पन्न, सर्वविधाभूषणों से विभूषित, हाव-भाव-विलासों से भरपूर, रतिक्रीड़ादिनिपुण, विलासिनी नारियां सभापति के आसन पर उपविष्ट राजा के पृष्ठ भाग में बैठाई जाएं ।' ३. सचिव __ कार्याकार्यविभागज्ञ, नीतिशास्त्रविशारद, सर्वविधकार्यों के निष्पादन में निष्णात, चतुर और स्वामिभक्त हों।' ४. दर्शक सामान्यतः सभ्यापरपर्यायवाची इन दर्शकों अथवा श्रोताओं में निम्न गुण अपेक्षित हैं -वे संगीतशास्त्रज्ञ, लक्ष्यलक्षणशास्त्रज्ञ, अनुद्धत, मध्यस्थ तथा गुणदोषनिरूपणसमर्थ हों। ५. कवि ऐसे कवि जो रसभावज्ञ, छन्दालंकारज्ञ, तीव्रबुद्धि, प्रतिभासम्पन्न तथा रीतिनिर्वाह में निपुण हों। ६. रसिक काव्यनाटकादि से उद्भूत रस के आस्वादन की दृढेच्छा वाले तथा सूक्ष्मभावों और अर्थों के ज्ञान से आनन्दित मन वाले हों। यह सभी यथायोग्य राजा के दक्षिण भाग में बैठाए जाएं। इनके अतिरिक्त राजा के वामभाग की ओर अन्य वाग्गेयकार, कविताकार, नर्तक आदि तत्तद्विद्यापारीण विद्वान राजा के समीपवर्ती आसनों पर यथोचित उपविष्ट हों। यह सब भी लक्ष्यलक्षण-शास्त्रज्ञ एवं संगीतांगों में निष्णात हों। इस प्रकार की सभा में उपविष्ट सभापति को चाहिये कि वह स्त्री-पुरुष, वृद्ध-युवा, दरिद्र-धनी, विनयशील-उद्धत, दुःखीप्रसन्न, शिष्य-गुरु, परस्पर असमान विद्यावाले, भीरु-वीर आदि जनों को वाद करने की अनुमति न दे चाहे इसके कितने भी ठोस कारण अथवा आधार उपस्थित क्यों न हों क्योंकि धन, विद्या, वय तथा सम्प्रदाय-परम्परा आदि में समानजनों का ही परस्पर वाद अभीष्ट है। १. संगीतसमयसार ६८-६. २. वही ६.१०-११. ३. वही ६.११-१२. ४. वही ६.१३. ५. वही ६.१४-१६. ६. वही ६.२४-२६. २०६ आचार्यरत्न श्री देशभ षण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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