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ही अपना एकमात्र आदर्श मानकर आचार्य श्री कहते हैं, “गुरु ही भगवान् की भक्ति का भेद बतलाता है, भगवान् तो हमारे सामने नहीं हैं । अतः हमको उनसे साक्षात् लाभ मिलना कठिन है। किन्तु भगवान् के पदचिह्नों पर चलने वाले निर्ग्रन्थ गुरु हमारे सामने हैं। उनका हित उपदेश विनय तथा ध्यान से सुनकर आत्महित करना चाहिए।"
____ अपने धर्मगुरु श्री जयकीति जी महाराज के अकस्मात् समाधिमरण के कारण आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी परमपूज्य आचार्य श्री शान्तिसागर जी, अपने दादा धर्मगुरु श्री पायसागर जी एवं दादा गुरु के साथ दीक्षित अन्य मुनियों को अपना आदर्श पुरुष मानते चले आए हैं ।
आचार्य श्री शान्तिसागर जी ने दिगम्बर जैन धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिए जब आजन्म अन्नाहार का त्याग कर दिया था, उस समय श्री देशभूषण जी ने जनजागरण एवं आचार्य महाराज के महान् संकल्प के प्रति रचनात्मक श्रद्धांजलि देने की भावना से स्वयं भी एक सुदीर्घ अवधि तक अन्नाहार का त्याग कर दिया था। अनासक्त कर्मयोगी श्री शान्तिसागर जी महाराज ने जब सिद्धक्षेत्र कुन्यलगिरि में यम सल्लेखना (समाधि) का महान् संकल्प किया था उस समय श्री देशभूषण जी की इच्छा उनके चरणों में जाकर वयावृत्य (सेवा) करने की थी, किन्तु मुनियोचित चातुर्मास की मर्यादा का पालन करने के कारण आप उस अवसर से वंचित रह गए।
किसी भी महान कार्य को हाथ में लेने से पूर्व आप सदैव अपनो गुरु-परम्परा का भक्तिपूर्वक स्मरण करते हैं। साधना के क्षणों में पंच परमेष्ठी, जिनवाणी इत्यादि का भाव-पूजन करने के उपरान्त वे अपने द्वारा निष्पादित कार्य की सफलता के लिये उनके मंगल आशीर्वाद के आकांक्षी रहते हैं । 'भरतेश वैभव', 'धर्मामृत' एवं 'रत्नाकर शतक' के मंगलाचरण इस दृष्टि से उल्लेख्य हैं(अ) "सूरि महागुण शान्ति बखान । पाय सिन्धु मुनिश्रेष्ठ जान ।
जय कीरत को है कोरत महान् । हरो गुरु मम कर्मधान ।" (भरतेश वैभव)
(आ) "महावीरवक्त्रारविन्दध्वनेश्च, ययोः पादपद्मात् ससवृत्तिलाभः ।
ममाभूतयोः शान्तिसिन्धुं नमामि, नमामि प्रभुं पायसिन्धुं किलाद्य ॥१॥ शान्तान्तरात्मसमुदश्चित्साधुवृत्तिः, शश्वत्तपःपरमसंयमसत्प्रवृत्तिः । शब्दप्रयोगसमलंकृतवाग्विभूतिः, शं सन्तनोतु जगतो जयपूर्वकोतिः ॥२॥ निःशेषशास्त्रपरिशीलनलब्धबोधम्, राजाधिराज-परिपूजित पादपद्मम् । आचार्यवर्यजयकोतिगुरुं प्रणम्य, धर्मामृतस्य सरला वितनोमि भाषाम् ॥३॥ आचार्यवर्ययमथ हन्नयसेनमय॑म्, विद्यातपोविगतकल्मषसूर्यभासम् ।
लोकान् सदा सदुपदेशकृतार्थयन्तम्, ज्ञानस्वरूपममलं मुनिमानतोऽस्मि ॥४॥" (धर्मामृत) (इ) "रागद्वेषविजेतारं भवसागरपारगम्, वर्द्धमानं जिनाधीशमात्मशुद्धयं नमाम्यहम् ॥१॥
शान्तिक्षान्तिसमालीढं, चारित्र चक्रवर्तिनम् , शान्तिसागरमाचार्य भक्त्या नौमि मुदा सदा ॥२॥ चेतोहरप्रवक्तारं साधुचर्या सुभूषितम् । पायसागरसूरीशं प्रणमामि मुदा सदा ॥३॥ जयकोति गुरुं नत्वा भव्यसत्वैकबान्धवम् । रत्नाकरस्य शतकस्य हिन्दीटीका करोम्यहम् ॥४॥
पूर्वाचार्यकृपा चात्र फलतोवावलोक्यते । विशेषज्ञं न मां ज्ञात्वा क्षम्यन्तां विबुधाः सदा ॥५॥" (रत्नाकर शतक)
आचार्य जी द्वारा प्रणीत साहित्य में अनेक स्थलों पर महामुनि श्री पायसागर जी से पूर्व के दीक्षित मुनि परमपूज्य आचार्य श्री वीरसागर जी एवं श्री पायसागर जी के साथ सोनागिरि क्षेत्र पर दीक्षित मुनियों-श्री चन्द्रसागर, श्री कुंथुसागर एवं श्री नमिसागर के चरणों में श्रद्धा का अर्घ्य अर्पित किया गया है । 'अपराजितेश्वर शतक' की प्रशस्ति में आपने लिखा है
"मम गुरु के भ्रात जो सकल गुणों की खान । वीर सिंधु मुनिराज हैं उन तपस्वी जान ।।
कालजयी व्यक्तित्व
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