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________________ कुछ समय उपरान्त आचार्य पायसागर जी महाराज के प्रिय शिष्य महामुनि श्री जयकीर्ति जी का कोथलपुर के निकटवर्ती स्तवननिधि में मंगल-प्रवेश हुआ। बालगौड़ा आत्म-कल्याण की कामना से उनके दर्शनार्थ जाने लगे। मुनि श्री जयकीति महाराज से उनका सम्बन्ध निरन्तर प्रगाढ़ होता गया और बालगोड़ा ने अपने बाल्यकाल में ही महाराज श्री से दिगम्बरी दीक्षा के लिए अनुरोध किया । पूज्य महाराज श्री ने आदेश दिया कि अभी मुनि-धर्म ग्रहण करने की अपेक्षा उन्हें स्वाध्याय इत्यादि करना चाहिए। मुनि श्री ने उन्हें अपने शिष्य के रूप में अंगीकार कर लिया और बालगौड़ा को धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन कराना आरम्भ कर दिया। बालगौड़ा ने भी एक विनीत शिष्य के रूप में अपने को पूज्य मुनि श्री जयकीति जी के चरणों में निष्ठा के साथ समर्पित कर दिया । यहीं से इनके आध्यात्मिक विकास की कथा का शुभारम्भ होता है । गुरु परम्परा आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के अन्तर्मन में अपने धर्मगुरु आचार्य श्री जयकीति जी महाराज और उनकी पूर्ववर्ती आचार्य परम्परा के प्रति असीम भक्ति भाव है। अपनी गौरवशाली गुरु-परम्परा का परिचय देते हुए उन्होंने 'अपराजितेश्वर शतक' की प्रशस्ति में लिखा है : "चक्रवति चारित्र के शांति सागराचार्य । इनके सम दूजा नहीं नमते इनको आर्य । शिष्य आपके सुगुणिवर पायसागराचार्य । जिनकी वाणी मधुर सुन शिव मग है अनिवार्य । अति पावन आचार्यवर श्री जयकीति महान् । पायसागराचार्य के थे सच्छिष्य प्रधान ॥ उन्हीं का मैं शिष्य हूं देशभूषणाचार्य । मुझ पर कर उपकार वे सिद्ध कर गए कार्य ॥" जैनधर्म में आचार्य परम्परा अथवा गुरु परम्परा की महिमा का गुणगान करते हुए उन्होंने अन्यत्र कहा है-"भगवान् महावीर के मुक्त हो जाने पर आत्मकल्याण का पथ-प्रदर्शन गुरु ही तो करते रहे हैं। हमारे गुरुओं ने ही तो भगवान् महावीर की वीर चर्या का स्वयं निर्मल आचरग किया और उसका महान् प्रचार किया।" परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी के प्रति उनके मन में विशेष पूज्य भाव है। अपने मन के उद्गारों को प्रकट करते हुए उन्होंने १३ दिसम्बर, १९५५ को जैन बालाश्रन, दरियागंज दिल्ली में कहा था-"परमपूज्य आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज ने आधुनिक युग में भगवान् महावीर के धर्म को प्रचारित तथा प्रसारित करने में, जैन संस्कृति की सुरक्षा में, अभिनन्दनीय कार्य किया है।" उनकी दृष्टि मे दिगम्बर जैन समाज में संयम के नवप्रभात के वे ही सर्वप्रमुख सूत्रधार थे। एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने २ जुलाई सन् १९५५ को हीरालाल जैन हायर सैकेन्डरी स्कूल सदर बाजार दिल्ली में कहा था-"वैसे तो निर्ग्रन्थ गुरु-चर्या प्रत्येक युग में बहुत कठिन रही है किन्तु इस कलियुग में यह और भी कठिन हो गई है। .....इस कलिकाल में मनुष्यों के चित्त चंचल हो गए हैं, धर्म में स्थिर नहीं रहते, तथा शरीर अन्न का कीड़ा बन गया है, उपवास, एकाशन भोजन करने योग्य नहीं रहा । इस कारण यह बड़ा आश्चर्य है कि आजकल भी जिनेन्द्ररूप धारक निर्ग्रन्थ साधु पाये जाते हैं।" परमपूज्य आचार्य शान्तिसागर जी महाराज द्वारा दीक्षित मुनि श्री पायसागर जी एवं श्री पायसागर जी द्वारा दीक्षित मुनि श्री जयकीति जी महाराज का आचार्यरत्न पर विशेष ऋण है। इन दोनों धर्मगुरुओं के उपकार को स्मरण कर वह कह उठते हैं कि "हमको भी गुरु ने ही सन्मार्ग दिखाया, इसी कारण हमारे उद्धारक गुरु ही हैं।" परमपूज्य श्री पायसागर जी एवं परमपूज्य श्री जयकीर्ति जी ब्रह्मविद्या के धनी थे। उन्होंने आचार्यरत्न देशभूषण जी को नर से नारायण बनने के साधना-मार्ग पर उन्मुख किया। धर्मगुरु शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य जी कहते हैं--''मनुष्य को जो आत्मा से परमात्मा बनाने की प्रक्रिया सिखलाता है वह धर्मगुरु है। संसार सागर को पार करने का ज्ञान धर्मगुरु से प्राप्त होता है, अतः धर्मगुरु संसार में सबसे अधिक पूज्य और वन्दनीय होता है।" जैनधर्म की दार्शनिक मान्यताओं के कारण वर्तमान युग में इस धरती पर तीर्थंकर का होना सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में धर्मगुरु को भाचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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