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________________ अपने साथियों के साथ खेत में, बाग-बगीचों में जाकर पेड़ों पर से आम एवं नारियल तोड़ कर खाया करते थे। उन्होंने एक नाटक-मण्डली का भी गठन कर लिया था। गांव में वे किसी से भी नहीं डरते थे। उनकी इस स्वच्छन्दतापूर्ण प्रकृति से तंग आकर उनकी बुआ बालगौड़ा को अपने गांव ले गयी और अपनी देख-रेख में उनका लालन-पोषण करने लगी। किन्तु बालगौड़ा का मन तो नाटक इत्यादि में लग गया था और वे उसमें रुचिपूर्वक भाग लेने लगे थे। एक बार बालक बालगौड़ा मुनि के भेष में नाटक करते हुए भिक्षाटन कर रहे थे, तभी घमते हुए उनकी बुआ के ससुर वहां पहुंच गये और बालगौडा को भीख मांगते हुए देखकर उन्होंने नाटक के निदेशक को फटकार लगाई । बाननौड़ा भी अपने घर वापिस आ गये। कालान्तर में इन्होंने एक नाटक मण्डली का गठन किया और भजन मण्डली भी बनाई, जो आध्यामिक गीतों को द्वार-द्वार पर जा कर गाया करती थी। बालगौड़ा का स्वर अत्यन्त सुरीला था। गौराङ्ग मस्तक पर त्रिपुण्ड लगाकर गले में रुद्राक्ष की माला डाल कर जब वे राग अलापते थे, तब उनकी पावन छवि प्रायः देखने योग्य ही होती थी। बालगौड़ा सरल हृदय के युवक थे । इनके मन में दूसरों के प्रति करुगा का भाव बचपन से ही भरा हुआ था। इनके इस भोलेपन का लोग प्रायः अनुचित लाभ भी उठा लिया करते थे। वे बालगौड़ा से अपने दुःख की कथा कह कर कर्ज ले लिया करते थे और उसे कभी वापस नहीं किया करते थे। बालगौड़ा ने भी अपने जीवन में कभी भी किसी कर्जदार को अपमानित नहीं किया और न ही उस पर किसी प्रकार का दबाव डाला । वे अपने मित्रों को सुख-सुविधा का पूरा-पूरा ध्यान रखा करते थे। इनका स्वभाव मनमौजी था। इसीलिए ये अपनी जमीन को साधारण मूल्य में दूसरों को जोतने के लिए दे दिया करते थे। एक बार इनके काका श्री जिनगौड़ा ने इन्हें २५ रुपये बैल खरीदने के लिए दिए । इन्होंने अपने दोस्तों के साथ वह सारा रुपया खाने-पीने में खर्च कर दिया। वापस आकर इन्होंने अपने काका को सहज मन से सारी घटना का से बता दी। काका ने इनके भो नेपन को जानते हुए इन्हें भविष्य में सावधानी से रहने का आदेश दिया। इसी प्रकार एक बार इन्हें बाजार से मक्खन लाने के लिए ५ रुपये दिए गए। बाजार में चौपड़ का खेल चल रहा था और बालगाड़ा का चंचल मन उस खेल के प्रति आकर्षित हो उठा । उन्होंने वह ५ रुपये चौपड़ के खेल में हार दिए और पुन. प्रयत्न करने के उपरान्त ४ रुपये जीत लिए और उससे मक्खन खरीद कर जब घर पहुचे तो इनके काका ने पूछा कि इतना थोड़ा मक्खन कैसे लाये हो? उन्होंने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए क्षमा याचना की और भविष्य में जुआ नहीं खेलने की प्रतिज्ञा भी ली। महाराज श्री का शरीर बचपन से ही हृष्टपुष्ट एवं स्वस्थ था । वे एक लोटा घी, आधा सेर गुड़, तीन सेर दूध तथा ४ कच्चे नारियल एक साथ ग्रहण कर लिया करते थे । बोझा उठाने में भी वे प्रवीण थे। ढाई मन का बोरा एक हाथ से उठा कर पीठ पर रख लिया करते थे । ३ गुण्डी पानी (७ घड़े) पीठ पर रख कर वह चला करते थे। शारीरिक शक्ति के साथ-साथ उनके अन्दर असाधारण शौर्य एवं निर्भीकता का भाव भी था। वे कभी भी, किन्हीं परिस्थितियों में किसी से भी नहीं डरा करते थे। एक बार उनके साथियों ने गांव में प्रचलित किंवदन्ती के आधार पर उनसे कहा कि गांव के बाहर जो श्मशान भूमि है, उसमें जो नारियल का पेड़ है, उस पर भूत-पिशाच इत्यादि रात्रि के समय में बसा करते हैं । अगर वहां से कोई भी बालक ५ नारियल तोड़ कर ले आएगा तो उसे पांच रुपये पुरस्कार के रूप में दिए जाएंगे। निर्भीक बालगौड़ा ने, जिन्हें आचार्यरत्न देश भूषणजी महाराज के रूप में परिवर्तित होना था, इस चुनौती को अपने बचपन में ही स्वीकार कर भ्रान्त धारणाओं का निराकरण कर दिया। रात्रि के गहरे अन्धकार में वे बिना किसी साथी को लिए श्मशान भूमि में निर्भीक मन से पहुँच गये। वहां की स्तब्धता एवं नीरवता किसी भी व्यक्ति के दिल को दहला सकती थी, किन्तु बालगौड़ा का निर्भीक और साहसी मन पराजय को स्वीकार नहीं कर सकता था। अतः श्मशान भूमि की परिक्रमा के उपरान्त वह पेड़ पर चढ़ गये और पेड़ पर रहने वाले चूहों में जब भगदड़ मच गयी और गिद्ध अपनी भयानक आवाज में चिल्ला उठे, तब भी बालगौड़ा का मन भयभीत नहीं हुआ। उन्होंने पांच नारियल तोड़े और उन्हें अपने साथ लाकर अपन साथियों को भेंट कर दिया। वास्तव में जिन लोगों को अपने जीवन में महान कार्य करने होते हैं, वे किसी भी परिस्थिति में अपने धैर्य से विचलित नहीं होते। बालगौड़ा अपने चरित्र के विकास में सदैव सावधान रहा करते थे। उनका मन त्याग और करुणा की भावना से परिपूर्ण था। शक्ति-सम्पन्न एवं धनाढ्य होने के उपरान्त भी वे किसी के साथ अन्याय नहीं करते थे। परोपकार की भावना उनके मन में सदैव विद्यमान रहती थी। एक बार उनके गांव के निकट मायाचिचली गांव में माया देवी का विशाल मेला लगा हुआ था। वे भी अपने साथियों के साथ मेले में गए और जब लौटकर आ रहे थे तो उन्होंने एक स्त्री को रोते हुए देखा, जिसके चारों तरफ लोग बड़ी संख्या में एकत्र हो गए थे। उस स्त्री की सोने की नथ कुंए में गिर पड़ी थी और वह रो-रो कर एकत्रित जनों से उस नथ को कुंए से निकालने का आग्रह कर रही था । बालगौड़ा को जब उसकी व्यथा का पता चला, तब उन्होंने अपने कपड़े उतार कर कुंए में छलांग लगा दी और उस स्त्री की नथ को कुंए की तलहटी से निकाल लिया। तदनन्तर उपस्थित पुरुषों एवं उनके साथियों ने रस्सा डाल कर बालगौड़ा को कंए से बाहर निकाला। कुएं से निकलने के उपरान उन्होंने उस स्त्री के डाय पर उसकी नत्र को रख दिया और चुपचाप कपड़े पहन २ साचार्यरत श्री देशभषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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