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एक कालजयी अपराजेय व्यक्तित्व
बाल्यावस्था
आत्मानुसंधान में संलग्न ज्योतिपुरुष, धर्मध्वजा आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज का जन्म दक्षिण भारत के बेलगांव, जिला कोथलपुर (कोथली) नामक ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम श्री सत्यगौड़ा पाटिल तथा माता का नाम अक्कादेवी था । आपके पूज्य पिता अपने क्षेत्र के एक सुप्रतिष्ठित व्यक्ति थे तथा सत्यवादिता एवं धर्मपरायणता के लिए उनका ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। अपने एकमात्र पुत्र को उन्होंने बालगौड़ा नाम दिया। प्यार से वे उसे बालप्पा कहकर भी सम्बोधित करते थे। बालक बालगौड़ा के भाग्य में मातृवात्सल्य का संयोग नहीं था । केवल तीन मास के उपरान्त ही माता श्री अक्कादेवी ने अपना नश्वर शरीर छोड़ दिया। मातृस्नेह से वचित इस बालक के लालन-पालन का भार पिता के ऊपर आ पड़ा ।
डॉ० रमेशचन्द्र गुप्त श्री सुमत प्रसाद जैन
बालक की नानी को जब माता श्री अक्कादेवी की मृत्यु का दुःखद समाचार मिला, तब वह ममता से परिपूर्ण होकर श्री सत्यगौड़ा के पास आयीं और अपनी हार्दिक संवेदना प्रकट करने के उपरान्त बालक को आवश्यक मातृस्नेह देने के लिए उसे अपने घर ले गयीं । उनकी नानी ने उन्हें इतना स्नेह दिया कि बालक को कभी भी माता के अभाव की अनुभूति नहीं हुई। बालक बालगौड़ा की आयु ५ - ६ वर्ष की होने पर इनके पिता इन्हें पुनः अपने घर ले आये । पिता द्वारा बालगौड़ा को विद्याध्ययन के लिए गुरुजी की शरण में भेजा गया । विद्या का आरम्भ करने से पूर्व श्री सरस्वती (जिनवाणी) की विशेष पूजा की गई । स्लेट पट्टी पर चावल चढ़ा कर सोने की अंगूठी से 'ॐ नमः सिद्धम्' लिखवाया गया। गुरुजी को एक नारियल और दक्षिणा भेंट की गई। इस प्रकार बालक के विकास की मंगल कामना के साथ बालगौड़ा के विद्यार्थी जीवन का शुभारम्भ हुआ ।
विद्याध्ययन के क्षेत्र में बालगौडा एक मेधावी छात्र के रूप में प्रतिष्ठित हुए और उन्होंने अपनी विशेष साधना, श्रम, प्रतिभा एवं एकाग्रता के बल पर सभी विद्याओं पर विशेषाधिकार कर लिया। भूगोल, चित्रकला एवं इतिहास में उनकी विशेष रुचि थी। मराठी और कन्नड़ के साहित्य की ओर उनका विशेष झुकाव था अध्ययन के साथ-साथ बालगौड़ा खेल - कद में भी विशेष रुचि लिया करते थे । कोथलपुर ग्राम में अंग्रेजी के अध्ययन की व्यवस्था नहीं थी । अतः तहसील चिकौड़ी में जाकर उन्हें अंग्रेजी का अक्षराभ्यास
करना पड़ा ।
बालक बालगौड़ा १२ वर्ष की अवस्था में अपने पिता की एकमात्र वात्सल्य छाया से भी वंचित हो गए। पिता के संरक्षण से वंचित बालक बालगौड़ा आगे और अधिक विद्यालयीय अध्ययन नहीं कर सके किन्तु उनके मन में विद्या के प्रति गहरा अनुराग अब भी विद्यमान था और उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त भी कन्नड़ और मराठी भाषाओं का स्वाध्याय नियमित रखा । बालगौड़ा के पिता श्री सत्यगौड़ा को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था । अतः उन्हें अपने एकमात्र पुत्र के भावी संरक्षण की चिन्ता सताने लगी थी। अपनी मृत्यु से पूर्व ही उन्होंने अपने भाई जिनगोड़ा पाटिल पर बालक बालगौड़ा के अभिभावकीय संरक्षण का भार सौंप दिया तथा अपनी सम्पत्ति भी उन्हीं को सौंप दी । अपने अग्रज भ्राता के अनुरोध को शिरोधार्य करते हुए श्री जिनगौड़ा ने भी बालक को अपना स्नेहपूर्ण संरक्षण प्रदान किया ।
चपल तारुण्य
बालक बालगौड़ा को प्रारम्भ से ही अपने शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति अधिक मोह था। उन्होंने अपने गांव के समवयस्क साथियों को एकत्र करके बच्चों की एक प्रभावशाली टोली बना ली अपनी शारीरिक मुडीलता एवं ओजस्वी व्यक्तित्व के कारण वह उसके प्रमुख बन गये । माता एवं पिता के वांछित स्नेह से वंचित बालक में शरारत एवं उत्पात की प्रवृत्तियां सहजतः आ गई थीं। वे
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कालजयी व्यक्तित्व
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