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________________ जैनेन्द्र -व्याकरण में कुछ सूत्रों में “स्वार्थ" शब्द निर्दिष्ट है।' इस शब्द के प्रयोग का विशेष प्रयोजन है। जैनेन्द्र-धातुपाठ में कुछ धातु अनेकार्थक हैं तथा जहाँ धातु के अर्थ-विशेष का निर्देश आवश्यक होता है वहाँ पूज्यपाद देवनन्दी ने 'स्वार्थ' शब्द का प्रयोग किया है । अभयनन्दी ने स्वार्थ शब्द से अभिप्रेत अर्थ को तत्तत्-सूत्र की वृत्ति में स्पष्ट कर दिया है । जैनेन्द्र-धातुपाठ को टीकाएं १. हैमलिङ्गानुशासन-विवरण में प्रयुक्त "नन्दि धातुपारायण" तथा "नन्दिपारायण" शब्दों के आधार पर पं० युधिष्ठिर मीमांसक का कथन है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने धातुपाठ पर कोई वृत्तिग्रन्थ लिखा था जिसका नाम धातुपारायण था। धातुपारायण नाम का धातुव्याख्यान ग्रन्थ पाणिनीय धातुपाठ पर भी था। अन्त में उनका कथन है कि "ऐसी अवस्था में हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि आचार्य देवनन्दी का धातुपारायण पाणिनीय धातुपाठ पर था, अथवा जैनेन्द्र-धातु पाठ पर।"" २. श्रुतपाल (वि० को हवीं शताब्दी) ने जैनेन्द्र-धातुपाठ पर किसी व्याख्यान ग्रन्थ की रचना की थी। ३. आचार्य श्रुतकीर्ति (वि. की १२वीं शताब्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण पर पंचवस्तु नामक प्रक्रिया-ग्रन्थ की रचना की जिसमें जैनेन्द्र-धातुपाठ का भी व्याख्यान किया गया है ।। ४. शब्दार्णव पर किसी अज्ञातनामा विद्वान् ने एक प्रक्रिया-ग्रन्थ की रचना की जिसमें जैनेन्द्र -धातुपाठ की व्याख्या की गई है। गणपाठ पज्यपाद देवनन्दी ने जनेन्द्र-व्याकरण से सम्बद्ध गणपाठ की भी रचना की थी यह निश्चित है। उनके द्वारा रचित गणपाठ पथक रूप से उपलब्ध न होकर अभयनन्दी-विरचित महावृत्ति में उपलब्ध होता है। जैनेन्द्र-व्याकरण के गणपाठ में निम्न तथ्य उल्लेखनीय हैं १. स्वर एवं वैदिक प्रकरणों के सूत्रों के अभाव के कारण तत्सम्बद्ध गणों का इस गणपाठ में सर्वथा अभाव है। २. इस गणपाठ में प्रायः तालव्य “श" के स्थान पर दन्त्य "स" का प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी किशार पाठ के स्थान पर जैनेन्द्र -व्याकरण के गणपाठ में चान्द्र-व्याकरण के अनुकरण पर' “किसर' शब्द का पाठ मिलता है। अष्टाध्यायी" तथा चान्द्र-व्याकरण के "शकुलाद' पाठ के स्थान पर जैनेन्द्र-व्याकरण में संकुलाद पाठ मिलता है।" ३. कहीं-कहीं पर दन्त्य 'स' के स्थान पर तालव्य 'श' का भी प्रयोग मिलता है। उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी के 'कौसल्य" शब्द के स्थान पर जैनेन्द्र-व्याकरण में चान्द्र-व्याकरण (कौशल) के समान ५ कौशल्य' शब्द का पाठ है। १. द्र०-जै० व्या० १/१/६३, १/२/३७. १/२/१५३, २/१/४२, २/१/७२, ४/३/७१,५/१/१०२ इत्यादि। तः तक्रम-उदश्वित् । नन्दिधातुपारायणे । हेमचन्द्र, श्री हेमलिङ्गानुशासन-विवरण, सम्पा०-विजयक्षमाभद्रसूरि, बम्बई, १९४०, पृ. १३२. ३. रणाजिरं च नन्दिपारायणे । वही, पृ० १३३. ४. सीमांसक, युधिष्ठिर, सं० च्या० शा० इ०, द्वि० भा०.१० ११८-११६. ५. वही, प्र. भा०. पृ० ५६५. ६. वही, द्वि० भा०प० १२०. ७. वही। किशर । नरद । ... ... ... ... ... हरिद्रायणी । किशरादि:। काशिका (प्र० भा०) ४/४/५३, सम्पाo-नारायण मिश्र, चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, १६६६. है किसर । नलद ।............."पर्णी । चन्द्रगोमी, चान्द्र-व्याकरण, प्र. भा० ३/४/५५ ७० सम्पा० क्षितीशचन्द्र चटर्जी, पूना, १९५३. १०. किसर। नलद ।................."हरिद्रपर्णी । जै० व्या० ३/३/१७२ वृ०. ११. काशि । चेदि ।.........'शकुलाद ।' ....... 'देवराज । का० ४/२/११६. १२. काशि । काचि । ...... . " शकुलाद...... देवराज । चा० व्या० ३/२/३३ वृ०. १३. काणि । वेदि ।..........."संकुलाद।......."देवराज । जै० व्या०३/२/१२ ब. १४. कौसल्यकार्यािभ्यां च, अष्टा० ४/१/१५५. १५. दगु कोशल कर्मारच्छागबषाद् युटु च, चा० व्या० २/४/८७. १६. कौशल्येभ्यः ; जै० व्या० ३/१/१४२. जैन धर्म एवं आचार - For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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