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पुरुषोत्तमलाल मेनारिया : राजस्थानी साहित्य में जैन साहित्यकारों का स्थान : ७६७
जैन साहित्यकार आधुनिक भारतीय भाषा के साहित्य में प्राचीनतम रचनाएं जैन साहित्यकारों द्वारा रचित ही उपल्ब्ध होती हैं. जैन साहित्य का महत्त्व प्राचीनता के साथ ही गद्य की प्रचुरता, काव्यों की विविधरूपता और जीवन को उच्च उद्देश्य की ओर अग्रसर करने की क्षमता के कारण है. जैन साहित्यकार सामान्य सांसारिक जीव नहीं हैं वरन् वे जीवन के विस्तृत अनुभवों से युक्त और साधना के उच्च धरातल पर पहुँचे हुए ज्ञानी-महात्मा हैं. अतएव जैन-साहित्य शुद्ध साहित्यिक तत्त्वों से युक्त होता हुआ भी उपदेश-तत्त्वों से पूर्ण है. जैन-साहित्य में शुद्ध साहित्यिक तत्त्वों के साथ ही उसकी उपयोगिता के तत्त्व भी उपलब्ध होते हैं. अनेक इतिहासकारों ने धार्मिक तत्त्व होने से जैन-साहित्य का समावेश अपने इतिहास-ग्रंथों में नहीं किया है. वास्तव में धार्मिक तत्त्वों से हीन साहित्य को साहित्य भी नहीं कहा जा सकता. सूर और तुलसी जैसे अनेक साहित्यकारों का साहित्य पूर्णरूपेण धार्मिक है जिसका समावेश इन ग्रंथों में किया गया है. इन इतिहासकारों ने, प्राचीनकाल में अन्य रचनाएं उपलब्ध नहीं हुई तब अवश्य ही काल-स्थापना के लिए जैन-रचनाओं का उल्लेख किया है. जैन साहित्यकारों ने वास्तव में केवल धार्मिक विषयों पर ही नहीं लिखा, वरन् वैद्यक, कोष, नगर-वर्णन, काव्य-शास्त्र, इतिहास, भूगोल, वास्तु-विद्या आदि अनेक विषयों पर अधिकारपूर्वक यथातथ्य निरूपण करते हुए लिखा है. जैन-साहित्यकारों ने अनेक साहित्यिक विधाओं की सृष्टि की. पद्य के अन्तर्गत प्रबन्ध, रास, रासो, भास, चउपई, फाग, बारहमासा, चउमासा, दूहा, गीत, धवल, गजल, संवाद, मात्रिका, स्तवन, सज्झाय, और मंगल आदि विविध रूप जैन साहित्यकारों द्वारा विकसित हुए. इसी प्रकार गद्य के अन्तर्गत वार्ता, कथा, टीका, टब्बा और बालावबोध आदि के रूप लिखे गये. जैन-साहित्यकारों ने प्राचीन साहित्य की रक्षा में भी अपूर्व योग दिया है. जैन-भण्डारों में जैन और अजैन दोनों ही प्रकार के प्राचीन ग्रंथ सुरक्षित रहे हैं. जैन साहित्यकार प्राचीन ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ आज तक करते रहते हैं और इस प्रकार प्राचीन जीर्ण प्रतियों का पुनरुद्धार होता है. प्राचीन ग्रंथ-सुरक्षा की दृष्टि से जैसलमेर ग्रंथ भण्डार का उदाहरण हमारे लिये आदर्श बना हुआ है. राजस्थानी जैन साहित्यकारों में वज्रसेन सूरि का 'भरतेश्वर बाहुबलि घोर' राजस्थानी भाषा की प्राचीनतम रचना मानी जाती है. इस रचना में कवि ने ४६ पद्यों में भरतेश्वर और बाहुबली का युद्धवर्णन किया है. इस काव्य में शांत रस का भी समावेश है. राजस्थानी साहित्य के वीर-गाथाकाल के प्रधान कवि शालिभद्र सूरि हुए, जिन्होंने वि० सं० १२४१ में 'भरतेश्वर बाहुबली रास' काव्य लिख कर रास परम्परा के अंतर्गत वीर-रसात्मक काव्यों का श्रीगणेश किया. मुहम्मदगोरी की पृथ्वीराज चौहान के विरुद्ध तराइन युद्ध (वि० सं० १२४०, ई० ११७३) की विजय से जनता में प्रबल प्रतिशोध की भावना उत्पन्न हुई और वीररस का संचार हुआ. फलस्वरूप शालिभद्रसूरि जैसे कवि भी अपने आपको सम-सामयिक वीर-भावना से वंचित न कर सके. सम-सामयिक वीर-भावना के परिणाम स्वरूप जैन-साहित्य में भरतेश्वर और बाहुबलिविषयक काव्य-निर्माण की सुदीर्घ परम्परा प्रचलित हुई. भरत और बाहुबली के मध्य हुए युद्ध के दृश्य अर्बुदाचल के सुप्रसिद्ध जैन-मंदिर विमलवसही में सुन्दरतापूर्वक उत्कीर्ण किये हैं.' यह रास वीररसपूर्ण होते हुए भी निर्वेदान्त है. इसमें उत्साह, दर्प और स्वाभिमान-पूर्ण उक्तियों की काव्यात्मक पंक्तियाँ विशेष पठनीय हैं. अनेक स्थल नाटकीय संलापों से अलंकृत हैं, यथा
१. भरतेश्वर-बाहुबलि रास, सं० लालचन्द भगवानदास गांधी, प्राच्य विया मंदिर. बड़ौदा, प्रस्तावना पृ० ५३-५६.
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