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७८६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
संत-साहित्य राजस्थान प्राचीनकाल से ही अनेक सन्त-सम्प्रदायों का केन्द्र रहा है. राजस्थानी वीरों के आश्रय में अनेक सन्त-सम्प्रदायों को प्रोत्साहन मिला. राजस्थान में दादू, रामस्नेही, निरंजनी, विष्णोई आदि सन्त-सम्प्रदायों का जन्म भी हुआ. दादू, रज्जब, रामचरणदास, सुन्दरदास, जसनाथ जैसे अनेक सन्तों की वाणी का राजस्थान में ही नहीं बाहर भी प्रसार है. राजस्थानी संत-साहित्य में धार्मिक उदारता का प्रतिपादन हुआ है. इसमें आत्मा और परमात्मा की एकता, बताते हुए सभी वर्गों और जातियों के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया गया है.' लोक-साहित्य जनता से मौखिक परम्परानुसार प्राप्त होने वाला साहित्य लोकसाहित्य कहा जाता है. विद्वानों ने इस साहित्य को ग्राम-साहित्य और लोकवार्ता साहित्य भी कहा है. राजस्थान का प्राकृतिक वातावरण अनेक विविधताओं से पूर्ण है. तदनुसार राजस्थान का लोक-साहित्य भी विविध रूपों में उपलब्ध होता है. राजस्थान में प्राचीनकाल से ही मौखिक साहित्य को लिपिबद्ध करने की परिपाटी रही है इसलिए हस्तलिखित ग्रंथों में भी अनेक लोककथाएं, लोकगीत, कहावतें, पहेलियाँ और लौकिक काव्यादि लिखित रूप में प्राप्त हो जाते हैं. राजस्थानी भाषा में लोक साहित्य के अन्तर्गत हजारों की संख्या में लोकगीत, लोककथाए', कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ, पवाड़े और ख्याल (लोक-नाटक) प्रचलित हैं. धार्मिक सिद्धांतों के प्रचार के लिए अनेक जैन साहित्यकारों ने भी लोक साहित्य की विभन्न शैलियों में अपनी रचानाएं लिखी हैं जिनमें उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है. राजस्थानी लोक साहित्य मौखिक होने से लुप्त होता जा रहा है इसलिए इसको तुरन्त ही वैज्ञानिक विधियों से लिपिबद्ध करना आवश्यक है. राजस्थानी भाषा में 'पाबू जी रा पवाड़ा,' 'बगड़ावत' और 'निहालदे' नामक महाकाव्य अभी तक मौखिक रूप में प्रचलित हैं. आकार-प्रकार की दृष्टि से इनका महत्त्व महाभारत से कम नहीं माना जा सकता.
आधुनिक-साहित्य भारत में ब्रिटिश-शासन की स्थापना के पश्चात् नवीनता का सूत्रपात हुआ है. इसी समय राजस्थानी साहित्य में भी नवीन विचारों और नवीन विधाओं का समावेश होते लगा. राजस्थान में राजाओं और अंग्रेजों के दोहरे शासनकाल में प्रेस एवं प्रकाशन कार्यों पर कड़े प्रतिबन्ध लगाए गए जिनके परिणाम स्वरूप आधुनिक राजस्थानी साहित्य का प्रकाशन यथेच्छ मात्रा में नहीं हो सका. तथापि शिवचन्दजी भरतिया, रामकरणजी आसोपा, गुलाबचन्दजी नागोरी, डा. गौरीशंकर जी हीराचन्द ओझा, पुरोहित हरिनारायणजी प्रभृति अनेक समर्थ साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से राजस्थानी साहित्य को समृद्धिशाली बनाया. आधुनिक काल में मुनि जिनविजयजी, अगरचन्दजी नाहटा, नरोत्तमदासजी स्वामी, डा. मोतीलाल, कन्हैयालालजी सहल, मनोहरजी शर्मा, सीतारामजी लालस, डा० तेस्सीतोरी, डा० जार्ज गियर्सन, डा. एलन, डा० सुनीतिकुमार जी, चाटुर्या प्रभृति विद्वानों ने राजस्थानी भाषा साहित्य का विशेष अध्ययन किया और रानी लक्ष्मी कुमारीजी चुंडावत जैसे अनेक गद्यलेखक राजस्थानी साहित्य को समृद्ध करने में संलग्न हैं. राजस्थानी कवियों में नारायण सिंह भाटी और कन्हैयालाल सेठिया की विविध विषयक रचनाएं, चन्द्रसिंह और नानूनाम की प्रकृति सम्बन्धी रचनाएँ, मेघराज मुकुल और गजानन वर्मा के गीत, रेवतदान चारण की ओजस्वी रचनाएं और विमलेश और बुद्धिप्रकाश की हास्यरसात्मक रचनाएं विशेष उल्लेखनीय हैं. वर्तमान में सैकड़ों ही कवि और लेखक राजस्थानी भाषा को सम्पन्न करने में सचेष्ट हैं और इनकी रचनाओं का जनता में विशेष प्रचार-प्रसार है.
१. राजस्थानी सन्त-साहित्य के विषय में विस्तृत विवरण, लेखक के अन्य निबन्ध (श्री कनोई अभिनन्दन ग्रन्थ ४० ए०, हनुमान रोड़ नई
दिल्ली में प्रस्तुत किया गया है.
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