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६२६ : मुनिश्री हजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय हो, वैकुण्ठवासी विष्णु हो, दामोदर हो तथा परवादियों की वासना को नष्ट करने वाले हो. महाकवि पुष्पदन्त के उल्लिखित संस्तवन के अध्ययन से प्रतीत होता है कि भगवान् वृषभदेव के रूप में ही शिव के त्रिमूर्तिरूप तथा बुद्ध रूप को भी समन्वित कर लिया गया है. यद्यपि समन्वय क्रिया पुष्पदन्त द्वारा जनदृष्टि को सम्मुख रख कर की गई है, परन्तु प्रतीत होता है कि तत्कालीन लोकप्रचलित शिव के एकेश्वरत्व ने भी अंशतः उनके मस्तिष्क पर अवश्य प्रभाव डाला है. पुष्पदंत का युग जैनधर्म के उत्कर्ष तथा धार्मिक सहिष्णुता का युग था. खजुराहो' के १००० ईस्वी के शिलालेख नम्बर पाँच में शिव का 'एकेश्वर' रूप में तथा 'विष्णु' 'बुद्ध' और 'जिन' का उन्हीं के अवतारों के रूप में उल्लेख किया जाना इसी तथ्य को पुष्ट करता है. यद्यपि इससे पूर्व पौराणिक काल में धार्मिक संघर्ष ने उग्ररूप धारण किया और चार्वाक, कौल तथा कापालिकों के साथ बौद्ध और जैनों को भी विधर्मी माना गया.२
वृषभ तथा शिव-ऐक्य के अन्य साक्ष्य : कतिपय अन्य लोकमान्य साक्ष्य भी वृषभ तथा शिव-दोनों के ऐक्य के समर्थक हैं जो निम्न प्रकार हैं : शिव रात्रि तथा कैलाश : वैदिक मान्यता के अनुसार शिव कैलाशवासी हैं और उनसे सम्बन्धित शिवरात्रि पर्व का वहाँ बड़ा महत्त्व है. जैन परम्परा के अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने सर्वज्ञ होने के पश्चात् आर्यावर्त के समस्त देशों में विहार किया, भव्य जीवों को धार्मिक देशना दी और आयु के अन्त में अमापद (कैलाश पर्वत) पहुंचे. वहाँ पहुँच कर योगनिरोध किया और शेष कर्मों का क्षय करके माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन अक्षय शिवगति (मोक्ष) प्राप्त की. भगवान् ऋषभदेव ने अष्टापद (कैलाश) से जिस दिन शिव-गति प्राप्त की उस दिन समस्त साधु-संघ ने दिन को उपवास तथा रात्रि को जागरण करके शिव-गति प्राप्त भगवान् की आराधना की, जिसके फलस्वरूप यह तिथि-रात्रि 'शिवरात्रि' के नाम से प्रसिद्ध हुई. उत्तरप्रान्तीय जैनेतर वर्ग में प्रस्तुत शिवरात्रि पर्व फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को माना जाता है. उत्तर तथा दक्षिण देशीय पंचागों में मौलिक भेद ही इसका मूल कारण है. उत्तरप्रान्त में मास का आरंभ कृष्ण-पक्ष से माना जाता है और दक्षिण में शुक्ल-पक्ष से. प्राचीन मान्यता भी यही है. जैनेतर साहित्य में चतुर्दशी के दिन ही शिवरात्रि का उल्लेख मिलता है. ईशान* संहिता में लिखा है :
माधे कृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि । शिवलिंगतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः ।
तत्कालव्यापिनी ग्राह्या शिवरात्रिवते तिथिः । प्रस्तुत उद्धरण में जहाँ इस तथ्य का संकेत है कि माघकृष्णा चतुर्दशी को ही शिवरात्रि मान्य किया जाना चाहिए, वहाँ उसकी मान्यतामूलक ऐतिहासिक कारण का भी निर्देश है कि उक्त तिथि की महानिशा में कोटि सूर्य प्रभोपम भगवान्
१. एपिग्राफिका इण्डिका : भाग १, पृष्ठ सं० १४०, २. सौरपुराण : ३८, ५४. ३. 'माघस्स किण्हि चोदसि पुव्वरहे णियय जम्मणक्खत्ते.
(क) अट्ठावयम्मि उसहो अजुदेण समं गओज्जोमि ।'–तिलोयपण्णत्ती । (ख) ..................घणतुहिणकगाउलि माहमासि ।
सूरग्गमिकसणचउद्दसीहि पिन्बुइ तित्थंकरि पुरिससीहि । -महापुराण : ३७, ३. ४. ईशान संहिता.