________________
Jain Edu
डॉ० राजकुमार जैन : वृषभदेव तथा शिव-संबंधी प्राच्य मान्यताए: ६२५ होने के पश्चात् सौधर्म तथा ईशान इन्द्र ने प्रस्तुत किया है. स्तवन में भगवान् की जय मनाते हुए कहा गया है' कि वह दुर्मथ कामदेव का मन्थन करनेवाले हैं, दोष-शेष रूपी मांस के लिये अग्नि के समान हैं, सम्पूर्ण विशुद्ध केवलज्ञान के आवास हैं, और मिथ्यामार्ग से सन्मार्ग प्राप्ति के विधारक हैं. वह कंकाल, त्रिसूल, मनुष्य-कपाल, विषधर तथा स्त्री से रहित हैं, शान्त हैं, शिव है, हिंसक है, राजम्पवर्ग उनके चरणों की पूजा करता है, परोपकारी है, भीति दूर करने वाले हैं, परन्तु अपने अन्तरंग रिपुवर्ग के लिये भयंकर हैं, वामाविमुक्त [स्त्री रहित] हैं, परन्तु स्वयं संसार के लिये वाम [प्रतिकूल है, त्रिपुरहारी [जन्म जरा मृत्यु] अथवा मिथ्यादर्शन, ज्ञान चारित्र रूपी त्रिपुर के विनाशक है, हर हैं, धैर्यशाली हैं, निर्मल स्वयं बुद्ध रूप से सम्पन्न हैं, स्वयंभू हैं, सर्वज्ञ हैं, सुख तथा शान्तिकारी शंकर हैं, चन्द्रधर हैं, सूर्य हैं, रुद्र हैं, उग्र तपस्वियों में अग्रगामी हैं, संसार के स्वामी हैं, तथा उसे उपशान्त करने वाले हैं, महादेव हैं, महान् गुणगणों से यशस्वी हैं, महाकाल हैं, प्रलयकाल के लिये उग्रकाल हैं, गणेश [ गणधरों के स्वामी ] हैं, गणपतियों [वृषभसेन आदि गणधरों] के जनक हैं, ब्रह्म है, ब्रह्मचारी हैं, वेदांगवादी [सिद्धान्तवादी ] हैं, कमलयोनि हैं, पृथ्वी का उद्धार करने वाले आदिवराह हैं, सुवर्णवृष्टि के साथ गर्भ में अवतीर्ण हुए हैं, दुर्भय के निवारक हैं, हिरण्यगर्भ हैं, [युगा हैं] परमानन्त][अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्यसुख तथा अनन्तवीर्य ] से सुशोभित हैं, अज्ञानान्धकार हारी हैं, दिवसनाथ हैं, यज्ञपुरुष हैं, पशुयज्ञ के विनाशक हैं, ऋषि सम्मत अहिंसाधर्म के प्रकाशक हैं, 3 माधव (अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी) हैं, त्रिभुवन के मापवेश हैं, मद्यरूपी मधु को दूषित करने वाले मधुसूदन हैं, लोकदृष्टा परमात्मा हैं, गोवर्द्धन (ज्ञानवर्धक) हैं, केशव है और परमहंस हैं. इन्द्र कहते हैं—भगवान् को संसार में केशव कहा जाता है जो रागी हो [यः केशेषु रागवान् स ' केशवः * जो केशों में अनुरागी हो उसे केशव कहते हैं ], परन्तु तुम तो वीतरागी हो, अतः तुम्हारे अन्दर वह केशवत्व कैसे आ सकता है ? 'केशव'' के अन्य प्रश्नमूलक शाब्दिक तात्पर्य को लेकर इन्द्र कहते हैं- भगवन्, वास्तव में वे ही जड़ हैं जो तुम्हारा उपहास करते हैं और ऐसे जन का नरक - वास ही निश्चित है. भगवन्, तुम काश्यप हो, जड़-आचार से विहीन हो, एकाग्र चिन्तानिरोधपूर्वक ध्यानी हो, आकाश, अग्नि, चन्द्र, सूर्य, यजमान, पृथ्वी, पवन, सलिल – इन आठ शरीरों से युक्त महेश्वर हो, परमोदारिक शरीर से युक्त हो. कलिकाल के समस्त पाप-पंक से मुक्त हो, सिद्ध हो, बुद्ध हो, शुद्धोदनि हो, सुगत हो, कुमार्गनाशक
-
१. जय दुम्म हवम्महणिम्महण दोस-रोस-पशु- पास-सिहि, जय सयलविमल केवलगिलय हरण करण उद्धरणविहि ।
२. जय कंकालसूलर कंदल विसहर विलयविरहिया, जय भगवंत संत सित्र सकिव णिवंचियचरण परहिया ।
जय सुकर कहियणीसेसणाम भोमंथरण गिर्यारउवग्गभीम, वामाविमुक्क संसारवाम जय तिउरहारि हरहीरधाम ।
जय पयडियधुस सयंभुभाव जयजय संयभू परिगणिय भाव, जय संकर संकर विहियसंति जय ससहर कुवलयदि एणकंति । जय रुद्द र उद्दतवग्गगानि जय जय भवसामि भवोवसामि महएव महागुणगणजसाल महकाल पलयकालुम्गकाल । जय जय गणेस गणवइजर जय वंभपसाहिय बंभचेर, वेयंगत्राइ जय कमलजोणि आई वराह उद्धरियखोगि । सहिरएणविट्ठि पडिवण्णगव्भ जय दुरणयहिण हिरण्यगन्भ, जय परमाणेत चक्क सोह भावंधसारहर दिवसणाह । जय जयपुरिस पसुजाणासि रिसिसंस अहिंसाधम्मभासि ॥
३. 'जय माहव तिहुवणमाहवेस महुसूयण सियमहुविसेस जय लोणि ओश्य परमहंस गोवद्धरण केसव परमहंस ।
जगि सो केसउ जो रायवंत तुह खीरायहु, कहिं केसवत्तु . - 'महापुराण' १०, ५.
४.
देखिये, महापुराण १०, ५ की टिप्पणी.
५. के सब ते सब जे पर हसंति जड पावपिंड रउरवि वसंति, जय वासव का सवविहि तुमम्मि रंतरू चित्ति गिरोहु जम्मि |
जय गयण हुयासणचंद रवि जीवय महि मारुय सलिल, अलंगम हेसर जय सयल पक्खालिय कलिमलकलिल ॥ - 'महापुराण' १०, ५. तुलना कीजिये :
या सृष्टि सृष्टधराद्या वहति विधिहुतं या हवियां च होत्री ये द्वे सन्ध्ये विधत्तः श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्व ।
यामाहु 'सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः, प्रत्यक्षाभिः 'प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः' ।
- अभिशानशाकुन्तल १, १ तथा मालविकाग्निमित्र १,१. ६. जय जय सिद्ध बुद्ध सुद्धोयणि सुगय कुमग्गणासणा, जय वइकुंठ विट्टु दामोयर हयपरवाश्वासणा ॥ - 'महापुराण' १०,६०
ibrary.org