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डॉ. राजकुमार जैन : वृषभदेव तथा शिव-संबंधी प्राच्य मान्यताएं : ६११
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कंचिद्विद्वत्तमं महाधिकारं पुण्यशीलं विश्वसंमान्यं कर्मपराह्मणैर्विद्विष्टं व्रात्यमनुलच्य वचनमिति मन्तव्यम् अर्थात् वहाँ उस व्रात्य से मन्तव्य है, जो विद्वानों में उत्तम, महाधिकारी, पुण्यशील और विश्वपूज्य है और जिससे कर्मकाण्डी ब्राह्मण विद्वेष करते हैं. इस प्रकार व्रतधारी एवं संयमी होने के कारण ही इन्हें व्रात्य नहीं कहा जाता था, अपितु शतपथ ब्राह्मण के एक उल्लेख से प्रतीत होता है कि वृत्र (अर्थात् ज्ञान द्वारा सब ओर से घेर कर रहनेवाला सर्वज्ञ) को अपना इष्टदेव मानने के कारण भी यह जन व्रात्य के नाम से अभिहित किये जाते थे.' जर्मन विद्वान डाक्टर हौएर का मत है कि यह व्रात्यों के योग और ध्यान का अभ्यास था जिसने पार्यों को आकर्षित किया, और वैदिक विचारधारा तथा धर्म पर अपना गहरा प्रभाव डाला है. दूसरी ओर श्री एन० एन० घोष अपनी नवीन खोज के आधार पर इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि प्राचीन वैदिक काल में व्रात्य जाति पूर्वी भारत में एक महान् राजनीतिक शक्ति थी. उस समय वैदिक आर्य एक नये देश में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिये लड़ रहे थे और उनको सैन्यबल की अत्यधिक आवश्यकता थी. अतः उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से व्रात्यों को अपने दल में मिला लिया. वात्यों को भी संभवतः आर्यों के नैतिक और आध्यात्मिक गुणों ने आकृष्ट किया और वे आर्य जाति के अन्तर्गत होने के लिये तैयार हो गये और फिर इस प्रकार आर्यों से मिल जाने पर उनकी सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित किया. व्रात्य का निरन्तर पूर्व दिशा के साथ सम्बद्ध किया जाना, उसके अनुचरों में 'पुंश्चली' और “मागध" का उल्लेख होना (ये दोनों ही पूर्व देशवासी तथा आर्येतर जाति के हैं), आर्यों से पहले भी भारतवर्ष में अतिविकसित और समृद्ध सभ्यताएँ होने के प्रमाणस्वरूप अधिकाधिक सामग्री का मिलना आदि तथ्य श्री एन० एन० घोष के निर्णय की ही पुष्टि करते हैं. वैदिक साहित्य के अनुशीलन से तथा लघु एशियाई पुरातत्त्व एवं मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा नगरों की खुदाई से प्राप्त सामग्री के आधार पर यह बात सुनिश्चित हो चुकी है कि वैदिक आर्यगण लघु एशिया तथा मध्य एशिया के देशों से होते हुए त्रेता युग के आदि में लगभग ३००० ई० पूर्व में इलावत और उत्तर पश्चिम के द्वार से पंजाब में आये थे. उस समय पहले से ही द्राविड़ लोग गान्धार से विदेह तक तथा पांचाल से दक्षिण के मय देश तक अनेक जातियों में विभक्त होकर विभिन्न जनपदों में निवास कर रहे थे. इनकी सभ्यता पूर्ण विकसित एवं समुन्नत थी एवं शिल्पकला इनके मुख्य व्यवसाय थे. ये जहाजों द्वारा लघु एशिया तथा उत्तरपूर्वीय अफ्रीका के दूरवर्ती देशों के साथ व्यापार करते थे. ये द्राविड़ लोग सर्प-चिह्न का टोटका अधिक प्रयोग में लाने के कारण नाग, अहि, सर्प, आदि नामों से विख्यात थे. श्याम वर्ण होने के कारण 'कृष्ण' कहलाते थे. अपनी अप्रतिम प्रतिभाशीलता तथा उच्च आचार-विचार के कारण ये अपने को दास व दस्यु (कान्तिमान) नामों से पुकारते थे. व्रतधारी एवं वृत्र का उपासक होने से व्रात्य तथा समस्त विद्याओं के जानकार होने से द्राविड़ नाम से प्रसिद्ध थे. संस्कृत का विद्याधर शब्द 'द्रविड़' शब्द का ही रूपान्तर है. ये अपने इष्टदेव को अर्हन, परमेष्ठी, जिन, शिव एवं ईश्वर के नामों से अभिहित करते थे. जीवनशुद्धि के लिये ये अहिंसा संयम एवं तपोमार्ग के अनुगामी थे. इनके साधु दिगम्बर होते थे और बड़े-बड़े बाल रखते थे. अन्य लोग तपस्या एवं श्रम के साथ साधना करके मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेते थे. यजुर्वेद में एक स्थल पर रुद्र का 'किवि'५ (ध्वंसक या हानिकर) के रूप में उल्लेख किया गया है और अन्यत्र 'द्रौत्य'
१. वृत्रो हवा इदं सर्व वृत्वा शिश्यो यदिदमत्तरेण द्यावापृथिवीय यदिदं सर्व वृत्वा शिश्ये तस्माद वृत्रो नाम. “शपतथ ब्राह्मण ११, ३, ४. २. होएरः दर व्रात्य (vratya) ३. एन०एन० घोष : इण्डो आर्यन लिटरेचर एण्ड कल्चर (orgin) १९३४ ई० ४. “ये नातरन्भूतकृतोतिमृत्युयमन्वविन्दन् तपसा श्रमेण."-अथर्ववेदः ४, ३५. ५. यजुर्वेदः (वाजसनेयी संहिता) १०, २०.
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