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मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
रही. यत्र तत्र साधुओं के अध्ययन और उन्हें पढ़ाने वाले वाचनाचार्य का वर्णन मिलता है. अध्ययन करने वाले साधुओं की योग्यता तथा आवश्यक तपोनुष्ठान का विधान भी किया गया है किन्तु श्रावकों का निर्देश शास्त्राध्ययन के सम्बन्ध में कहीं नहीं मिलता. इस का दूसरा अर्थ 'श्रापाके' धातु के आधार पर किया जाता है. इस धातु से संस्कृत रूप 'श्रापक' बनता है जिसका प्राकृत में 'शाक्य' हो सकता है किन्तु संस्कृत में 'श्रावक' शब्द के साथ इसकी संगति नहीं बैठती. इन शब्द का आशय है वह व्यक्ति, जो भोजन पकाता है, इसके विपरीत साधु भिक्षा पर निर्वाह करते हैं, पकाते नहीं.
श्रावक के लिये बारह व्रतों का विधान है. उनमें से प्रथम पांच अणुव्रत या शीलव्रत कहे जाते हैं. अणुव्रत का अर्थ है छोटे व्रत साधु हिंसा आदि का पूर्ण परित्याग करता है अतः उसके व्रत महाव्रत कहे जाते हैं. श्रावक उनका पालन मर्यादित रूप में करता है अतः उसके व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं. शील का अर्थ है आचार, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच चरित्र या आचार की आधार शिला है. इसीलिए इनको शील कहा जाता है. बौद्ध साहित्य में भी इनके लिये यही नाम मिलता है. योग दर्शन में इन्हें यम कहा गया है और अष्टांग योग की आधार शिला माना गया है और कहा गया है कि ये ऐसे व्रत हैं जो सार्वभौम हैं—व्यक्ति देश-काल तथा परिस्थिति की मर्यादा से परे हैं अर्थात् धर्माधर्म या कर्तव्या कर्तव्य का निरूपण करते समय अन्य नियमों की जांच अहिंसा आदि के आधार पर करना चाहिए किन्तु इन्हें किसी दूसरे के लिये गौण नहीं बनाया जा सकता. हिंसा प्रत्येक अवस्था में पाप है उसके लिये कोई अपवाद नहीं हैं. कोई व्यक्ति हो या कैसी ही परिस्थिति हो, हिंसा पाप है, अहिंसा धर्म है. सत्य आदि के लिये भी यही बात है. किन्तु इनका पूर्णतया पालन वहीं हो सकता है जहाँ सब प्रवृत्तियां बन्द हो जाती हैं. हमारी प्रत्येक हलचल में सूक्ष्म या स्थूल हिंसा होती रहती है अतः साधक के लिये विधान है कि उस लक्ष्य पर दृष्टि रखकर यथाशक्ति आगे बढ़ता चला जाय. साधु और विक इसी प्रगति की दो कक्षाएं हैं. श्रावक के शेष सात व्रतों को शिक्षा व्रत कहा गया है वे जीवन में अनुशासन लाते हैं. इनमें से प्रथम तीन बाह्य अनुशासन के लिये हैं और हमारी
व्यावसायिक हलचल, दैनन्दिन रहन-सहन एवं शरीर-संचालन पर नियंत्रण करते हैं लिये हैं. इन दोनों श्रेणियों में विभाजन करने के लिये प्रथम तीन को गुण व्रत और जाता है.
और शेष चार आंतरिक शुद्धि के शेष चार को शिक्षा व्रत भी कहा
इन बारह व्रतों के अतिरिक्त पूर्व भूमिका के रूप में सम्यक्त्व व्रत है जहां साधक की दृष्टि अन्तर्मुखी बन जाती है और वह आन्तरिक विकास को अधिक महत्त्व देने लगता है, इसका निरूपण पहले किया जा चुका है. बारह व्रतों का अनुष्ठान करता हुआ श्रावक आध्यात्मिक शक्ति का संचय करता जाता है. उत्साह बढ़ने पर वह घर का भार पुत्र को सौंप कर धर्म - स्थान में पहुंच जाता है और सारा समय तपस्या और आत्म-चिन्तन में बिताने लगता है. उस समय वह ग्यारह प्रतिमायें स्वीकार करता है और उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ अपनी चर्या को मुनि के समान बना लेता है. जब वह यह देखता कि मन में उत्साह होने पर भी शरीर कृश हो गया है और बल क्षीण होता जा रहा है तो नहीं चाहता कि शारीरिक दुर्बलता मन को प्रभावित करे और आत्म-चिन्तन के स्थान पर शारीरिक चिन्तायें होने लगें. इस विचार के साथ वह शरीर का ममत्व छोड़ देता है. आहार का परित्याग करके निरन्तर आत्म-चिन्तन में लीन रहता है. जहाँ वह जीवन की इच्छा का परित्याग कर देता है, वहाँ यह भी नहीं चाहता कि मृत्यु शीघ्र आ जाय जीवन और मृत्यु, निन्दा और स्तुति, सुख और दुःख सबके प्रति समभाव रखता हुआ समय आने पर शान्तचित्त से स्थूल शरीर को छोड़ देता है. श्रावक की इस दिनचर्या का वर्णन उपासकदशांग के प्रथम आनन्द नामक अध्ययन में है. अब हम संक्षेप में इन व्रतों का निरूपण करेंगे. प्रत्येक व्रत का प्रतिपादन दो भागों में विभक्त है. पहला भाग विधान के रूप में है. जहां साधक अपनी व्यवहार मर्यादा का निश्चय करता है उस मर्यादा को संकुचित करना उसकी अपनी इच्छा एवं उत्साह पर निर्भर है किन्तु मर्यादा से आगे बढ़ने पर व्रत टूट जाता है. दूसरे भाग में उन दोषों का प्रतिपादन किया गया है जिनकी संभावना बनी रहती है और कहा गया है कि श्रावक को उन्हें जानना चाहिए किन्तु आचरण न करना चाहिए. श्रावक के लिये दिनचर्या के रूप में प्रतिक्रमण का विधान है. उसमें वह प्रतिदिन इन व्रतों एवं संभावित दोषों को दोहराता है किसी
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