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डॉ० इन्द्रचन्द्र शास्त्री एम० ए० पी-एच० डी०, शास्त्राचार्य, वेदान्तवारिधि, न्यायतीर्थ श्रावकधर्म
जैनधर्म के अनुसार साधना का उद्देश्य किसी बाह्य वस्तु की प्राप्ति करना नहीं, वरन् बाह्य प्रभाव के कारण आत्मा का जो शुद्ध स्वरूप छिपा हुआ है, उसे प्रकट करना है. जब आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है तो वही परमात्मा बन जाता है. परमात्मपद की प्राप्ति ही जैन-साधना का लक्ष्य है. इसकी प्राप्ति के लिये जीव अपने विकारों को दूर करता हुआ क्रमशः आगे बढ़ता है. जैनसंघ में गृहत्यागी और गृहस्थ दोनों वर्गों को स्थान दिया गया है. अतएव स्वाभाविक है कि साधकों के स्तरभेद के कारण उनकी साधना के स्तर में भी भिन्नता हो. यही कारण है कि जैनशास्त्रों में मुनिधर्म और गृहस्थ-धर्म का पृथक्पृथक् निरूपण किया गया है. प्रस्तुत निबंध में गृहस्थधर्मसाधना पर ही प्रकाश डाला जाएगा. गृहस्थधर्म को संयमासंयम, देशविरति, देशचारित्र आदि भी कहते हैं. यह सर्वविदित है कि श्रमण-परम्परा में त्याग पर अधिक बल दिया गया है. यहां विकास का अर्थ आन्तरिक समृद्धि है और यदि बाह्य सुख-सामग्री उसमें बाधक है तो उसे भी हेय बताया गया है. फिर भी जैन-परम्परा ने आध्यात्मिक विकास की मध्यम श्रेणी के रूप में एक ऐसी भूमिका को स्वीकार किया है जहाँ त्याग और भोग का सुन्दर समन्वय है. बौद्धसंघ में केवल भिक्षु ही सम्मिलित किये जाते हैं, गृहस्थों के लिये स्थान नहीं है. किन्तु जैनसंघ में दोनों सम्मिलित हैं. जहाँ तक मुनि की चर्या का प्रश्न है जैन-परम्परा ने उसे अत्यन्त कठोर तथा उच्चस्तर पर रखा है. बौद्ध-भिक्षु अपनी चर्या में रहता हुआ भी अनेक प्रवृत्तियों में भाग ले सकता है किन्तु जैन मुनि ऐसा नहीं कर सकता. परिणामस्वरूप जहाँ तप और त्याग की आध्यात्मिक ज्योति को प्रज्वलित रखना साधुसंस्था का कार्य है, संघ के भरण-पोषण एवं बाह्य सुविधाओं का ध्यान रखना श्रावक-संस्था का कार्य है.. बौद्धधर्म में भी साधना-मार्ग के रूप में श्रावक-यान का निर्देश मिलता है. वहां श्रावक शब्द का अर्थ है, वह साधक जो दूसरों से सुनकर ज्ञान प्राप्त करता है और साधना के पथ पर अग्रसर होता हुआ निर्वाण अवस्था में पहुंचता है. इसकी तुलना में वहाँ दो यान और हैं. प्रत्येक बुद्धयान और बोधिसत्वयान. प्रत्येक बुद्ध अपने आप ज्ञान प्राप्त करता है और बोधिसत्व अपने कल्याण के साथ दूसरों के कल्याण में भी प्रवृत्त होता है. इस प्रकार बोधिसत्व और शेष दो में लक्ष्य का भेद है. जैन परम्परा में जो स्थान तीर्थंकर का है बौद्ध-परम्परा में वही बुद्ध का है. श्रावक और प्रत्येक बुद्ध में ज्ञानप्राप्ति की दृष्टि से भेद है. जहाँ तक उनके शील या चरित्र का प्रश्न है कोई भेद नहीं है किन्तु जैन परम्परा में श्रावक और मुनि में मुख्य भेद चरित्र के स्तर का है. जैन-साहित्य में श्रावक शब्द के दो अर्थ मिलते हैं—पहला, 'थि' धातु से बना है, जिसका अर्थ है सुनना. जो शास्त्रों का श्रवण करता है और तदनुसार चलने का यथाशक्ति प्रयत्न करता है वह श्रावक है. श्रावक शब्द से साधारणतया यही अर्थ ग्रहण किया जाता है. प्रतीत होता है जैन परम्परा में श्रावकों द्वारा स्वयं शास्त्राध्ययन की परिपाटी नहीं
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