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साध्वी निर्मलाश्री : जैनमतानुसार अभाव प्रमेयमीमांसा : ४६७
कहा है:
कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य निहवे, प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् । और घट-पटादि अनन्त हो जाने पर सभी पर्यायों का सद्भाव युगपत् अनुभव में आना चाहिए किन्तु वर्तमान में तो एक ही पर्याय अनुभव में आता है.. यहां यह शंका भी नहीं करनी चाहिए कि घटविनाश यदि कपालरूप है तो कपाल का विनाश होने पर, यानी घटविनाश का नाश होने पर, फिर घट को पुनरुज्जीवित हो जाना चाहिए, क्योंकि विनाश का विनाश तो सद्भावरूप होता है. कारण का उपमर्दन करके कार्य उत्पन्न होता है, पर कार्य का उपमर्दन करके कारण नहीं उपादान का उपमर्दन करके उपादेय की उत्पत्ति ही सर्वजनसिद्ध है. प्रागभाव (पूर्वपर्याय) और प्रध्वंसाभाव (उत्तरपर्याय) में उपादान-उपादेय भाव है. प्रागभाव का नाश करके प्रध्वंस उत्पन्न होता है, पर प्रध्वंस का नाश करके प्रागभाव पुनरुज्जीवित नहीं हो सकता. जो नष्ट हुआ वह नष्ट हुआ. नाश अनन्त है. जो पर्याय गया वह अनन्त काल के लिये गया, वह फिर वापिस नहीं आ सकता. 'यदतीतमतीतमेव तत्'-यह ध्रुव नियम है. अतः यदि प्रध्वंसाभाव नहीं माना जाता है तो कोई भी पर्याय नष्ट नहीं होगा और सभी पर्याय अनन्त हो जायेंगे. प्रध्वंसाभाव प्रतिनियत पदार्थव्यवस्था के लिये नितान्त आवश्यक है. अन्य स्वभाव से अपने स्वभाव की व्यावृत्ति को इतरेतराभाव या अन्यापोह कहते हैं. जैसे स्तम्भ-स्वभाव से कुम्भ-स्वभाव की व्यावृत्ति होती है. आचार्य वादि-देवसूरि ने भी इसी बात को इस प्रकार कहा है--स्वरूपान्तरात् स्वरूपव्यावृत्तिरितरेतराभाव इति.'' एक पर्याय का दूसरे पर्याय में जो अभाव है वह इतरेतराभाव है. स्वभावान्तर से स्वस्वभाव की व्यावत्तिको इतरेतराभाव कहते हैं. प्रत्येक पदार्थ का अपना-अपना स्वभाव निश्चित है. एक का स्वभाव दूसरे का स्वरूप नहीं होता. यह जो स्वभावों की प्रतिनियतता है वही इतरेतराभाव है. घटका पट में और पट का घट में वर्तमानकालिक अभाव है. कालान्तर में घट के परमाणु मिट्टी, कपास और तन्तु बनकर पट-पर्याय को धारण कर सकते हैं, पर वर्तमान में तो घट-पट नहीं हो सकता. यह जो वर्तमानकालीन परस्पर व्यावृत्ति है वह अन्योन्याभाव है. प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव से अन्योन्याभाव का कार्य नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि जिसके अभाव में नियम से कार्य की उत्पत्ति हो वह प्रागभाव, और जिसके होने पर नियम के कार्य का विनाश हो वह प्रध्वंसाभाव कहलाता है. पर इतरेतराभाव के अभाव या भाव से कार्योत्पत्ति या विनाश का कोई सम्बन्ध नहीं है. वह तो वर्तमान पर्यायों के प्रतिनियत स्वरूप की व्यवस्था करता है. यदि यह इतरेतराभाव नहीं माना जाय, तो कोई भी प्रतिनियत पर्याय सर्वात्मक हो जायगा. अर्थात् सब सर्वात्मक हो जायेंगे. जैसाकि स्वामी समंतभद्र ने श्राप्तमीमांसा' में कहा है-'सर्वात्मकं तदेक स्यादन्यापोह-व्यतिक्रमे.'
अतीतादि तीनों कालों में तादात्म्य परिणाम की निवृत्ति को अत्यन्ताभाव कहा जाता है. जैसे चेतन में अचेतन के तादात्म्य भाव का अत्यन्त अभाव है. अर्थात् चेतन किसी काल में अचेतन नहीं बनता. इसी बात को वादिदेवसूरि ने प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार में इस प्रकार कहा है—'कालत्रयापेक्षिणी हि तादात्म्यपरिणामनिवृत्ति रत्यन्ताभावः'. यदि अत्यन्ताभाव को स्वीकार न किया जाय तो घट-पटादि में भी चेतनत्व की प्राप्ति हो जायगी. जैसाकि स्वामी समंतभद्र ने कहा है-'अन्यत्र समवायेन व्यपदिश्येत सर्वथा.'* अतः एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ का त्रैकालिक अभाव ही अत्यन्ताभाव है. ज्ञान का आत्मा
१. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, परिच्छेद, ३, सूत्र ६३. २. कारिका ११ (पूर्वार्ध), ३. तृतीय परिच्छेद, कारिका ६५. ४. कारिका ११ (उत्तरार्ध).
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