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४६६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
इस अभाव प्रमेय को लेकर दार्शनिकों में काफी विचारविमर्श हुआ है. प्रभाकर मीमांसक अभाव के संपूर्ण द्वेषी हैं, वे अभाव को नहीं मानते. बौद्ध दार्शनिक भी अभाव को कल्पित पदार्थ मानते हैं. न्याय-वैशेषिक तथा वेदान्ती अभाव को भाव से भिन्न एक स्वतन्त्र पदार्थ स्वीकार करते हैं. सांख्य इसे अधिकरण स्वरूप मानते हैं. जैनमतानुसार अभाव वस्तु का अभावांश है.
इस अभाव प्रमेय के
भेद को लेकर भी दार्शनिकों में मतभेद विद्यमान है. वैशेषिक संप्रदाय में प्रागभावादि भेद से अभाव को चार प्रकार का माना गया है. नव्य न्यायिक गंगेश प्रभृति आचार्यों ने अभाव के चार प्रकार ही माने हैं. प्राचीन नैयायिक उदयनाचार्य ने भी स्वरचित लक्षणावली में अभाव के चातुविध्य का ही प्रतिपादन किया है. वाचस्पति मिश्र ने भी इसी बात का समर्थन किया है. किन्तु जयन्त भट्ट के मतानुसार अभाव द्विविध है - प्रागभाव और ध्वंस. वे अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव को स्वतन्त्र अभाव नहीं मानते किन्तु प्रागभाव को ही उक्त दोनों अभावों के स्थान में मानते हैं. जैन सिद्धान्तानुसार भी अभाव चार प्रकार का है, जैसे-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव. पदार्थ का पूर्व में अनस्तित्व ही प्रागभाव है, अर्थात् जिसका विनाश होने पर कार्य की उत्पत्ति हो वह पदार्थ उस कार्य - का प्रागभाव है, जैसे घट मृत्पिण्डविनाश के द्वारा उत्पन्न होता है अतः मृत्पिण्ड घट का प्रागभाव है. जैसाकि वादि देव सूरि ने अपने प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार' में कहा है- 'यन्निवृत्तावेव कार्यस्य समुत्पत्तिः सोऽस्य प्रागभावः' कोई भी कार्य अपनी उत्पत्ति के पहले असत् होता है, वह कारणों से उत्पन्न होता है. कार्य का अपनी उत्पत्ति के पहले न होना ही प्रागभाव कहलाता है. यह अभाव भावान्तर रूप होता है. यह तो ध्रुव सत्य है कि किसी भी द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती. द्रव्य तो अनादि-अनन्त है. उत्पत्ति होती है पर्याय की. द्रव्य अपने द्रव्यरूप से कारण होता है, और पर्यायरूप से कार्य. जो प्रायः उत्पन्न होने जा रहा है वह उत्पत्ति के पूर्व पर्याय रूप में नहीं था. अतः उसका जो अभाव वही प्रागभाव है. यह प्रागभाव पूर्व पर्यायरूप होता है, अर्थात् घट-पर्याय जब तक उत्पन्न नहीं हुआ तब तक वह असत् है और जिस मिट्टी द्रव्य से वह उत्पन्न होने वाला है उस द्रव्य का घट से पहले का पर्याय घट का प्रागभाव कहा जाता है. अर्थात् वही पर्याय नष्ट होकर घटपर्याय बनता है. अतः वह पर्याय घट- प्रागभाव है.
इसी तरह अत्यन्त सूक्ष्म काल की दृष्टि से पूर्वपर्याय ही उत्तरपर्याय का प्रागभाव है और सन्तति की दृष्टि से यह प्रागभाव अनादि भी कहा जाता है. पूर्वपर्याय का प्रागभाव तत्पूर्वपर्याय है, तथा तत्पूर्वपर्याय का प्रागभाव उससे भी पूर्व का पर्याय होगा, इस तरह सन्तति की दृष्टि से यह अनादि होता है. यदि कार्य पर्याय का प्रागभाव नहीं माना जाता है, तो कार्यपर्याय अनादि हो जायगा और द्रव्य में त्रिकालवर्ती सभी पर्यायों का एक काल में प्रकट सद्भाव मानना होगा, जो कि सर्वधा प्रतीति-विरुद्ध है.
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जिसकी उत्पत्ति से कार्य का अवश्य विनाश हो, वह उस कार्यका प्रध्वंसाभाव है. जैसे कपाल - समुदाय की उत्पत्ति होने से नियमतः घटका विनाश होता है, अतः कपालसमुदाय ही घट का प्रध्वंसाभाव है. जैसा कि वादि देवसूरिने कहा है'त्यो कार्यस्यावदयं विपत्तिः सोय प्रध्वंसाभावः द्रव्य का विनाश नहीं होता किन्तु विनाश होता है पर्याय का. अतः कारण-पर्याय का नाश कार्यपर्यायरूप होता है. कारण नष्ट होकर कार्यरूप बन जाता है. कोई भी विनाश सर्वथा अभावरूप या तुच्छ न होकर उत्तर पर्यायरूप होता है. घट पर्याय नष्ट होकर कपाल- पर्याय बनता है, अतः घट का विनाश कपालरूप ही फलित होता है.
तात्पर्य यह है कि पूर्वपर्याय का नाश उत्तरपर्यायरूप होता है. यदि प्रागभाव को न माना जाय तो कार्यभूत द्रव्य घटपटादि अनादि हो जायगा, और अनादि पदार्थ का नाश नहीं होता है. अतः घट पटादि की नित्यत्वापत्ति होगी. प्रध्वंसाभाव को न स्वीकार करने पर कार्यभूत घटपटादि अनन्त हो जायेंगे. जैसा कि स्वामी समन्तभद्र ने श्राप्तमीमांसा में
१. तृतीय परिच्छेद, सूत्र ५.१.
२. प्रमाणनयतत्त्वलोक लंकार, तृतीय परिच्छेद, सूत्र ६१.
३ कारिका १०.
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