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________________ बंशीधर : जैनदृष्टि से मनुष्यों में उच्च-नीच व्यवस्था का आधार :.४६१ 6------------------ मनुष्य ही ऐसे हैं जिनमें उच्चगोत्री तथा नीचगोत्री दोनों प्रकार के वर्गों का सद्भाव पाया जाता है अर्थात् उक्त कर्मभूमिज मनुष्यों में से चातुर्वण्य व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों और इन वर्गों के अन्तर्गत जातियों के सभी मनुष्य उच्चगोत्री ही होते हैं. इनसे अतिरिक्त जितने शूद्र वर्ण और इस वर्ण के अन्तर्गत जातियों के मनुष्य पाये जाते हैं वे सब तथा चातुर्वण्य व्यवस्था से बाह्य जो शक, यवन, पुलिन्दादिक हैं, वे सब नीचगोत्री ही माने गये हैं. आर्यखण्ड में बसने वाले इन कर्मभूमिज मनुष्यों को छोड़ कर शेष जितने भी मनुष्य लोक में बतलाये गये हैं उनमें से भोगभूमि के सभी मनुष्य उच्चगोत्र तथा पांचों म्लेच्छखण्ड़ों में बसने वाले मनुष्य और अन्तर्वीपज मनुष्य नीचगोत्री ही हुआ करते हैं. आर्यखण्ड में बसने वाले शक, यवन, पुलिन्दादिक को तथा पांचों म्लेच्छखण्डों में और अन्तर्दीपों में बसने वाले मनुष्यों को जैन संस्कृति में म्लेच्छ संज्ञा दी गयी है और यह बतलाया गया है कि ऐसे म्लेच्छों को भी उच्चगोत्री समझना चाहिए जिनका दीक्षा के योग्य साधु आचार वालों के साथ सम्बन्ध स्थापित हो चुका हो और इस तरह जिनमें 'आर्य' ऐसा प्रत्यय तथा 'आर्य' ऐसा शब्द व्यवहार भी होने लगा हो. इससे जैन संस्कृति में मान्य गोत्रपरिवर्तन के सिद्धान्त की पुष्टि होती है. गोत्रपरिवर्तन के सिद्धान्त को पुष्ट करने वाले बहुत से लौकिक उदाहरण आज भी प्राप्त हैं, जैसे—यह इतिहासप्रसिद्ध है कि जो अग्रवाल आदि जातियां पहले किसी समय में क्षत्रिय वर्ण में थीं वे आज पूर्णतः वैश्य वर्ण में समा चुकी हैं. जैन पुराणों में अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों का उल्लेख है. वे उल्लेख स्त्रियों के गोत्रपरिवर्तन की सूचना देते हैं. आज भी देखा जाता है कि विवाह के अनन्तर कन्या पितृपक्ष के गोत्र की न रह कर पतिपक्ष के गोत्र की हो जाती है. इस संपूर्ण कथन का अभिप्राय यह है कि यदि परिवर्तित गोत्र उच्च होता है तो नीचगोत्र की बन जाती है और यदि परिवर्तित गोत्र नीच होता है तो उच्चगोत्र में उत्पन्न हुई नारी भी नीचगोत्र की बन जाती है और परिवर्तित गोत्र के अनुसार ही नारी के यथायोग्य नीचगोत्र कर्म का उदय न रह कर उच्चगोत्र कर्म का उदय तथा उच्चगोत्र का उदय समाप्त होकर नीचगोत्र कर्म का उदय आरम्भ हो जाता है. इसी प्रकार मनुष्यों में जीवनवृत्ति का परिवर्तन न होने पर भी गोत्र परिवर्तन हो जाता है जैसा कि अग्रवाल आदि जातियों का उदाहरण ऊपर दिया गया है. पहले कहा चुका है कि आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी ने 'उच्चगोत्र कर्म का जीवों में किस रूप में व्यापार होता है' इस प्रश्न का समाधान करने के लिये जो ढंग बनाया है उसका उद्देश्य उन सभी दोषों का परिहार करना है जिनका निर्देश पूर्व पक्ष के व्याख्यान में किया गया है. इससे हमारा अभिप्राय यह है कि आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी ने उच्चगोत्र का निर्धारण करके उसमें जीवों की उत्पत्ति के कारणभूत कर्म को उच्चगोत्र-कर्म नाम दिया है. उन्होंने बतलाया है कि दीक्षा के योग्य साधु आचार वाले पुरुषों का कुल ही उच्चगोत्र कहलाता है और ऐसे कुल में जीव की उत्पत्ति होना ही उच्चगोत्र-कर्म का कार्य है. इसमें पूर्वोक्त दोषों का अभाव स्पष्ट है क्योंकि इससे जैन संस्कृति द्वारा देवों में स्वीकृत उच्चगोत्र कर्म के उदय का और नारकियों तथा तिर्यंचों में स्वीकृत नीचगोत्र-कर्म के उदय का व्याघात नहीं होता है. क्योंकि इसमें उच्चगोत्र का जो लक्षण बतलाया गया है वह मात्र मनुष्यगति से ही संबन्ध रखता है और इसका भी कारण यह है कि उच्चगोत्र-कर्म के कार्य का यदि विवाद है तो वह केवल मनुष्यगति में ही संभव है. दूसरी गतियों में याने देव, नरक और तिर्यक् नाम की गतियों में, कहाँ किस गोत्र-कर्म का, किस आधार से उदय पाया जाता है, यह बात निर्विवाद है. इस समाधान से अभव्य मनुष्यों के भी उच्चगोत्र कर्म के उदय का अभाव प्रसक्त नहीं होता है क्योंकि अभव्यों को उच्च माने जाने वाले कुलों में जन्म लेने का प्रतिबन्ध इससे नहीं होता है. म्लेच्छखण्डों में बसने वाले मनुष्यों के नीच. गोत्र-कर्म के उदय की ही सिद्धि इस समाधान से होती है क्योंकि म्लेच्छखण्डों में जैन संस्कृति की मान्यता के अनुसार धर्म-कर्म की प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव विद्यमान रहने के कारण दीक्षा के योग्य साधु आचार वाले उच्च कुलों का सद्भाव नहीं पाया जाता है. इसी आधार पर अन्तीपज और कर्मभूमिज म्लेच्छ के भी केवल नीचगोत्र-कर्म के उदय की ही सिद्धि होती है. आर्यखण्ड के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य संज्ञा वाले कुलों में जन्म लेने वाले मनुष्यों के इस समाधान से केवल उच्चगोत्र कर्म के उदय की ही सिद्धि होती है क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य संज्ञा वाले सभी कुल दीक्षा योग्य साधु आचार वाले उच्चकुल ही माने गये हैं. साधुवर्ग में उच्च-गोत्र कर्म के उदय का व्याघात भी oया LISH 4 Gelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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