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४८० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय की जैन संस्कृति में उच्चगोत्र संज्ञा स्वीकार की गयी है तथा ऐसे कुलों में जीव के उत्पन्न होने के कारणभूत कर्म को भी जैन संस्कृति में उच्चगोत्र-कर्म के नाम से पुकारा गया है. इस समाधान में पूर्व प्रदर्शित दोषों में से कोई भी दोष सम्भव नहीं है क्योंकि इसके साथ उन सभी दोषों का विरोध है. इसी उच्चगोत्र कर्म के ठीक विपरीत ही नीचगोत्र-कर्म है. इस प्रकार गोत्रकर्म की उच्च और नीच ऐसी दो ही प्रकृत्तियाँ हैं. आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी ने जीवों में उच्चगोत्र-कर्म का किस रूप में व्यापार होता है, इस प्रश्न का समाधान करने के लिये जो ढंग अपनाया है उसका उद्देश्य उन सभी दोषों का परिहार करना है, जिनका निर्देश ऊपर उद्धृत पूर्व पक्ष के व्याख्यान में आचार्य महाराज ने स्वयं किया है. वे इस समाधान में यही बतलाते हैं कि दीक्षा के योग्य साधु-आचार वाले पुरुषों का कुल ही उच्चगोत्र या उच्चकुल कहलाता है और ऐसे गोत्र या कुल में जीव की उत्पत्ति होना ही उच्चगोत्रकर्म का कार्य है. इस प्रकार मनुष्य-गति में दीक्षा के योग्य साधु-आचार के आधार पर ही जैन संस्कृति द्वारा उच्चगोत्र या उच्चकुल की स्थापना की गयी है. इससे निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्यगति में तो जिन कुलों का दीक्षा के योग्य साधुआचार न हो वे कुल नीच-गोत्र या नीच कुल कहे जाने योग्य हैं. 'गोत्र' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ गोत्र शब्द के निम्नलिखित विग्रह के आधार पर होता है :
____ "गूयते-शब्द्यते अर्थात् जीवस्य उच्चता वा नीचता वा लोके बमवहियते अनेन इति गोत्रम् !" इसका अर्थ यह है कि जिसके आधार पर जीवों का उच्चता अथवा नीचता का लोक में व्यवहार किया जाय वह गोत्र कहलाता है. इस प्रकार जैन संस्कृति के अनुसार मनुष्यों की उच्च और नीच जीवनवृत्तियों के आधार पर निश्चिय किये गए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र ये चार वर्ण तथा लुहार, चमार आदि जातियाँ-ये सब गोत्र, कुल आदि नामों से पुकारने योग्य हैं. इन सभी गोत्रों या कुलों में से जिन कुलों में पायी जाने वाली मनुष्यों की जीवनवृत्ति को लोक में उच्च माना जाए वे उच्चगोत्र या उच्च कुल तथा जिन कुलों में पायी जाने वाली मनुष्यों की जीवनवृत्ति को लोक में नीच माना जाए वे नीचगोत्र या नीच कुल कहे जाने योग्य हैं. इस तरह उच्चगोत्र या कुल में जन्म लेने वाले मनुष्यों को उच्च तथा नीच या कुल में जन्म लेने वाले मनुष्यों को नीच कहना चाहिए. आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी के उल्लिखित व्याख्यान से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि उच्चगोत्र में पैदा होने वाले मनुष्यों के नियम से उच्चगोत्र-कर्म का तथा नीच गोत्र में पैदा होने वाले मनुष्यों के नियम से नीचगोत्र-कर्म का ही उदय विद्यमान रहा करता है अर्थात् विना नीचगोत्र-कर्म के उदय के कोई भी जीव उच्च कुल में और विना नीचगोत्र-कर्म के उदय के कोई भी जीव नीच कुल में उत्पन्न नहीं हो सकता है. तत्त्वार्थसूत्र की टीका सर्वार्थसिद्धि में तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्यायके 'उच्चैर्नीचैश्च'. (सूत्र १२) सूत्र की टीका करते हुए आचार्य श्रीपूज्यपाद ने भी यही प्रतिपादन किया है कि :
“यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम् । यदुदयाद् गहितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचैगोत्रम् ।" अर्थात् जिस गोत्र-कर्म के उदय से जीवों का लोकपूजित (उच्च) कुलों में जन्म होता है उस गोत्र कर्म का नाम उच्चगोत्र कर्म है और जिस गोत्र कर्म के उदय से जीवों का लोकहित (नीच) कुलों में जन्म होता है उस गोत्र कर्म का नाम नीचगोत्र कर्म है. जैन संस्कृति के आचारशास्त्र (चरणानुयोग) और करणानुयोग से यह सिद्ध होता है कि सभी देव उच्चगोत्री और सभी नारकी और सभी तिर्यंच नीचगोत्री ही होते हैं. परन्तु ऊपर जो उच्चगोत्र-कर्म की उदीरणा करने वाले तिर्यंचों का कथन किया गया है उन्हें इस नियम का अपवाद समझना चहिए. मनुष्यों में भी केवल आर्यखण्ड में बसने वाले कर्मभूमिज
१. 'दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणा' आदि वाक्य का जो हिन्दी अर्थ षट्खण्डागम पुस्तक १३ में किया गया है, वह गलत है. हमने जो
यहाँ अर्थ किया है उसे सही समझना चाहिए.
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