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४७६ : मुनि श्रीहनारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
खण्डन- यदि जीवों में उच्चगोत्र-कर्म के उदय से पंचमहाव्रतों के ग्रहण करने की योग्यता का प्रादुर्भाव होता है
तो ऐसी हालत में देवों में और अभव्य जीवों में उच्चगोत्र-कर्म के उदय का अभाव स्वीकार करना होगा, जबकि उन दोनों प्रकार के जीवों में, जैन संस्कृति की मान्यता के अनुसार, उच्चगोत्र-कर्म के उदय का तो सद्भाव और पंचमहाव्रतों के ग्रहण करने की योग्यता का अभाव दोनों ही एक साथ पाये
जाते हैं. ३. समाधान-जीवों में सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति उच्चगोत्र कर्म के उदय से हुआ करती है. ४. खण्डन—यह समाधान भी सही नहीं है क्योंकि जैन संस्कृति की मान्यता के अनुसार जीवों में सम्यग्ज्ञान की
उत्पत्ति उच्चगोत्र कर्म का कार्य न होकर ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की सहायता से सापेक्ष सम्यग्दर्शन का ही कार्य है. दूसरी बात यह है कि जीवों में सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति को यदि उच्चगोत्र कर्म का कार्य माना जायगा तो फिर तिर्यंचों और नारकियों में भी उच्चगोत्र कर्म के उदय का सद्भाव मानने के लिये हमें बाध्य होना पड़ेगा जो कि अयुक्त होगा, क्योंकि जैन शास्त्रों की मान्यता के अनुसार जिन तियंचों और जिन नारकियों में सम्यग्ज्ञान का सद्भाव पाया जाता है उनमें उच्चगोत्र कर्म के उदय का अभाव
ही रहा करता है. ४. समाधान-जीवों में आदेयता यश और सुभगता का प्रादुर्भाव होना ही उच्चगोत्र-कर्म का कार्य है. खण्डन- यह समाधान भी इसीलिए गलत है कि जीवों में आदेयता, यश और सुभगता का प्रादुर्भाव उच्चगोत्र
कर्म के उदय का कार्य न होकर क्रमश: आदेय, यशः कीत्ति और सुभग संज्ञा वाले नाम कर्मों का ही
कार्य है. ५. समाधान-जीवों का इक्ष्वाकु कुल आदि क्षत्रिय कुलों में जन्म लेना उच्चगोत्र-कर्म का कार्य है.' खण्डन- यह समाधान भी उल्लिखित प्रश्न का उत्तर नहीं हो सकता है क्योंकि इक्ष्वाकु कुल आदि जितने क्षत्रिय
कुलों को लोक में मान्यता प्राप्त है वे सब काल्पनिक होने से एक तो अतद्रूप ही हैं. दूसरे यदि इन्हें वस्तुतः सद्रूप ही माना जाय तो भी यह नहीं समझना चाहिए कि उच्चगोत्र-कर्म का उदय केवल इक्ष्वाकु कुल आदि क्षत्रिय कुलों में ही पाया जाता है; कारण कि जैन सिद्धान्त की मान्यता के अनुसार उक्त क्षत्रिय कुलों के अतिरिक्त वैश्य कुलों और ब्राह्मण कुलों में भी तथा उक्त सभी तरह के कुलों के
बन्धन से मुक्त हुए साधुओं में भी उच्चगोत्र कर्म का उदय पाया जाता है.२ ६. समाधान-सम्पन्न (धनाढय) लोगों से जीवों की उत्पत्ति होना ही उच्चगोत्र-कर्म का कार्य है. खण्डन- यह समाधान भी सही नहीं है क्योंकि सम्पन्न (धनाढ्य) लोगों से जीवों की उत्पत्ति को यदि उच्चगोत्र
कर्म का कार्य माना जायगा तो ऐसी हालत में म्लेच्छराज से उत्पन्न हुए बालक में भी हमें उच्चगोत्र कर्म के उदय का सद्भाव स्वीकार करना होगा, कारण कि म्लेच्छराज की संपन्नता तो राजकुलका व्यक्ति होने के नाते निर्विवाद है. परन्तु समस्या यह है कि जैन-सिद्धान्त में म्लेच्छ जाति के सभी लोगों के नियम
से नीचगोत्र-कर्म का ही उदय माना गया है. ७. समाधान-अणुव्रतों को धारण करने वाले व्यक्तियों से जीवों की उत्पत्ति होना उच्चगोत्र-कर्म का कार्य है.
१. 'नेक्ष्वाकुकुलाद्युत्पत्ती' का हिन्दी अर्थ षटखण्डागम पुस्तक १३ में 'इक्ष्वाकुकुल आदि की उत्पत्ति में इसका व्यापार नहीं होता' किया
गया है जो गलत है. इसका सही अर्थ 'इक्ष्वाकु कुल आदि क्षत्रिय कुलों में जीवों की उत्पत्ति होना इसका व्यापार नहीं है' होना चाहिए. २. यहां पर षटखण्डागम पुस्तक १३ में 'बिडब्राह्मण साधुष्वपि' वाक्य का हिन्दी अर्थ 'वैश्य और ब्राह्मण साधुओं में किया गया है जो गलत
है. इसका सही अर्थ 'वैश्यों, ब्राह्मणों और साधुओं में होना चाहिए.
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