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ज्ञान भारिल्ल : अनन्य और अपराजेय जैनदर्शन : २६१
in it is very important. It throns a finc light upon the various conditions & states of the things. (न्यायशास्त्र में जैनन्याय अति उच्च है. उसमें स्याद्वाद का स्थान अति गम्भीर है. वस्तुओं की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों पर वह सुन्दर प्रकाश डालता है.) महामहोपाध्याय रामशास्त्री ने कहा है—'स्याद्वाद जैनधर्म का अभेद्य किला है. उसमें प्रतिवादियों के मायामय गोले प्रवेश नहीं कर सकते हैं." पं० हंसराज शर्मा कहते हैं- "अनेकान्तवाद-स्याद्वाद अनुभवसिद्ध स्वाभाविक और परिपूर्ण सिद्धान्त है." महात्मा गांधी स्याद्वाद के विषय में कहते हैं - "अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) मुझे बहुत प्रिय है. उसमें मैंने मुसलमानों की दृष्टि से उनका, ईसाइयों की दृष्टि से उनका, इस प्रकार अन्य सभी का विचार करना सीखा. मेरे विचारों को या कार्य को कोई गलत मानता तब मुझे उसकी अज्ञानता पर पहले क्रोध आता था. अब मैं उनका दृष्टिबिन्दु उनकी आँखों से देख सकता हूँ, क्योंकि मैं जगत् के प्रेम का भूखा हूँ. अनेकान्तवाद का मूल अहिंसा और सत्य का युगल है." गांधीजी द्वारा कही गई बात राजनीति के क्षेत्र में कितनी उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है, यह स्पष्ट है. वैज्ञानिक क्षेत्र में स्याद्वाद ने अपनी उपयोगिता सिद्ध की है. वस्तुओं को अनेक दृष्टि से देखना, जाँचना और उनके विविध गुण-धर्मों से परिचित होना अनेकान्त दृष्टि के अतिरिक्त और क्या है ? यदि विज्ञान अपनी पहले से चली आ रही मान्यताओं से ही जकड़ा रहता और कई-अनेक दृष्टियों को नहीं अपनाता तो क्या वह अपनी कोई भी शोध कार्यान्वित कर सकता था ? लोहा बहुत भारी होता है और पानी में डूब जाता है, ऐसी एकान्त रूढ मान्यता बहुत समय से चली आ रही है. किन्तु विज्ञान ने उसे अन्य दृष्टियों से देखने का प्रयत्न किया. इस प्रयत्न और प्रयोग में लोहा हल्का भी बन जाता है
और इस कारण से पानी पर तैर सकता है. उसके इस अनेकान्तज्ञान ने लोहे के जलयान समुद्र में चला दिए. इसी प्रकार बिजली, ध्वनि, अणुशक्ति आदि से सम्बन्धित सभी चीजें अनेकान्त दृष्टि पर ही अवलम्बित हैं. वैज्ञानिक जगत् में अनेक समस्याएँ घिरी हुई थीं. किन्तु सन् १९०५ में जब प्रो० आइन्सटीन ने संसार के सम्मुख अपना सापेक्षवाद सिद्धान्त (Theory of Relativity) रखा, तब उनमें से अधिकाँश समस्याओं का समाधान सहज ही में हो सका. यह सापेक्षावाद क्या है ? स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद का ही दूसरा नाम सापेक्षवाद है. जैनशास्त्रों में स्याद्वाद को स्पष्ट रूप से अपेक्षावाद या सापेक्षवाद कहा गया है.' जैन दार्शनिकों द्वारा स्याद्वाद और अनेकान्तवाद, इन दोनों शब्दों का प्रयोग समान अर्थ में किया गया है. अतः उनमें कोई भिन्नता नहीं है.२ किसी वस्तु का एक ही अन्त अथवा छोर अथवा पहलू अथवा गुणधर्म देखकर जब उसके समस्त स्वरूप का निर्णय कर लिया जाय तो वह एकान्तवाद है. किन्तु जब वस्तु के अनेक अन्त, छोर, पहलू अथवा गुणधर्मों का अवलोकन करके उसके सम्बन्ध में निर्णय किया जाय तो वह अनेकान्तवाद है. कहा गया है कि "एकस्मिन् वस्तुनि सापेक्षरीत्या विरुद्धनानाधर्मस्वीकारो हि स्याद्वादः" एक ही पदार्थ में सापेक्ष रीति से नाना प्रकार के विरोधी धर्मों का स्वीकार करना ही स्याद्वाद है.' यहाँ हमें स्याद्वाद शब्द की व्युत्पत्ति करके उसके सही अर्थ को समझ लेना चाहिए. स्याद्वाद शब्द 'स्याद्' और 'वाद' इन दो पदों से बना हुआ है. अतः इसका अर्थ हुआ-स्यात् शब्द की मुख्यता वाला वाद–स्याद्वाद. वाद का अर्थ तो स्पष्ट है-कथन अथवा प्रतिपादन. किन्तु स्याद् शब्द अत्यन्त रहस्यपूर्ण है और उसके ठीक अर्थ को समझ लेना अत्यन्त
१. जैनधर्मसार २. अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्यादवादः लघीयस्त्रयटीका. ३. स्याद्वादोऽनेकान्तवादः. -स्यावादमंजरी.
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