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२६० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : द्वितीय अध्याय जैनदर्शन की विशिष्टता और श्रेष्ठता उसके दर्शन, उसके तत्त्वज्ञान में निहित है. जैनदर्शन का वह विशिष्ट और सर्वोच्च सिद्धान्त अनेकान्तवाद है. अनेकान्तवाद की एक विशिष्ट महत्त्वपूर्ण तथा प्रमाणयुक्त पद्धति है. संसार के जितने भी विद्वान् इस तर्कपद्धति के परिचय में आते हैं, वे सभी इस पर मुग्ध हो जाते हैं. हर्मन जेकोबी, डा० स्टीनकोनो, डा० टेसीटोरी, डा० पारोल्ड, बर्नार्ड शा जैसे चोटी के पाश्चात्य विद्वानों ने इस दर्शन और इस तर्कपद्धति की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है. अनेकान्त के विषय में हम आगे विस्तार से विचार करेंगे. यहाँ हमें इतना ही कहना अभीष्ट है कि जैनदार्शनिकों ने प्रत्येक वस्तु का एक स्थान पर अनेक दृष्टियों से निरीक्षण करने की अपनी अद्वितीय पद्धति से न केवल अपने ही दर्शन की, किन्तु संसार के सभी दर्शनों की छानबीन की है और यह सिद्ध किया है कि ये सारे दर्शन केवल एक ही अन्त (एकान्त) पर आधारित हैं. अलग-अलग दृष्टिबिन्दुओं पर विचार किये विना ही, सिर्फ एक ही ओर से विचार करके इन दर्शनों की रचना की गई है. जैनदार्शनिकों ने यह सिद्ध किया है कि जैनदर्शन सातों नयों (जिन्हें सात अन्त अथवा सात छोर कहा जा सकता है) पर आधारित है, इसलिए सम्पूर्ण और अविचल है, जबकि शेष मुख्य-मुख्य दर्शन एक ही अन्त अथवा छोर पर आधारित हैं, इसलिए अपूर्ण और ऐकांतिक हैं. हम यहाँ पर उल्लेख करना उचित और संगत समझते हैं कि भिन्न-भिन्न दर्शन किस-किस एक-एक नय पर रचित हैं. यथा--
(१) अद्वैत वेदान्त और सांख्य, संग्रह नय पर आधारित हैं. (२) नैयायिक और वैशेषिकदर्शन नैगम नय पर आधारित हैं. (३) चार्वाकमत सिर्फ व्यवहार नय पर आधारित है. (४) बौद्धमत ऋजुसूत्र नय पर आधारित है. (५) मीमांसक मत शब्द नय पर निर्भर है. (६) वैयाकरणदर्शन समभिरूढनय का आधार लेकर चलता है.
(७) इनके अतिरिक्त अन्य कई Extremist (उद्दाम) तत्त्वज्ञान हैं जो सब एवंभूत नय के अनुसार चलते हैं. उपरोक्त स्थिति को देखते हुए जैनदर्शन हमें एक महासमुद्र की भांति प्रतीत होता है जो इन सातों नयों को अपने में समाहित किए हुए है. आइये, अब हम अनेकान्तवाद के विषय में कुछ विचार करें जिसकी सनातन शक्ति के बल पर जैनदर्शन संसार का सर्वश्रेष्ठ और दिग्विजयी दर्शन माना जाता है.
अनेकान्तवाद और स्याद्वाद अनेकान्त शब्द का यदि हम विग्रह करें तो हमें उसमें तीन शब्द मिलते हैं-अन् +एक+अन्त, अर्थात् जिसका एक अंत नहीं-जिसमें अनेक अन्त हैं-वह अनेकान्त. किसी भी वस्तु के विषय में निर्णय करने से पूर्व हमें उसके अलग अलग पहलुओं तथा उसकी विभिन्न सीमाओं को अपनी दृष्टि में रखना चाहिये. ऐसा करने पर जो निर्णय हम करेंगे, उसमें हमें वस्तु का सच्चा स्वरूप जानने को मिलेगा. यह सुनहरी शिक्षा हमें अनेकान्तवाद देता है. श्री सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सबहा न निब्वहइ
तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ॥ भावार्थ-जिसके विना लोकव्यवहार भी सर्वथा नहीं चलता, उस भुवन के श्रेष्ठ गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार हो. इंग्लैंड के प्रसिद्ध विद्वान् डा० थामसन ने कहा है कि-Jain logic is very high. The place of syadvad
१. सम्मतितर्क
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