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________________ मुनि कान्तिसागर लोंकाशाह की परंपरा और उसका अज्ञात साहित्य : २२३ छंदोऽलंकृतिशब्दशास्त्ररहितं काव्यं यदा निर्मितं सुनितेजसंगणिभिधीरे शिष्यं परैः ॥१०२॥ राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के हस्तलिखित ग्रंथों की सूची में 'ज्ञानप्रकाश स्तबक' तेजसिंह कृत सूचित है, पर मूल प्रति के बिना निरीक्षण कैसे कहा जाय कि वह इसी तेजसिंह द्वारा प्रणीत है या अन्य किसी द्वारा. इनकी रचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि तेजसिंह का साहित्य साधना काल सं० १७११ से १७५१ के लगभग रहा है. सं० १७५१ का उल्लेख एक सज्झाय में इन शब्दों में हुआ है— संवत सतर एकावनां वरषे कहे तेजसिंह गणधारी । दीव नगर संघ दीपतो धरमी नें धनधारी ॥ इनके प्रशिष्य तेजपाल 'रत्नपंचबीसी' और 'रत्नचूड चौ०' (२० का० सं० १७३५) के प्रणेता थे. इनके समय में और केशवजी के आचार्यत्व काल में पूर्वोलिखित धनराज आदि ३ मुनि वोहरा वीरजी के सुप्रयत्न से सूरत में आकर गच्छ में सम्मिलित हुए. धनराज के संतानीय दीप मुनि सुदर्शन रास, गुणकरंड चौ० और धमार ( मेरे संग्रह में, कुलैथ नगरे रचित) के प्रणेता थे. १७ कानजी -- नाडोलाई के ओसवाल पिता कचरा माता जगीसा. इनका संयम ग्रहण समय अनुपलब्ध है, देवमुनि रचित भास में केवल इतना ही संकेत है कि बाल्यकाल में दीक्षित हो चुके थे. इनकी कृतियां औपदेशिक ही मिलती हैं. एक स्थूलभद्र स्वाध्याय (पद्य १५ ) मेरे संग्रह में है. इनके समय में गांगजी मुनि ने सं० १७६१ में रत्नसार तेजसार रास, सं० १७६१ में राणपुर में जंबू स्वाध्याय का निर्माण किया. इन्हीं के शिष्य दाम वर सिंह ने सं० १७६६ में नवतत्व चौपाई रची. तदनन्तर भीमसेन सुजाण और महानंद आदि मुनियों ने गुजराती में कई कृतियां विनिर्मित की. कानजी के बाद तुलसीदासजी, जगरूपजी, जगजीवनजी, मेघराजजी, सोमचंदजी, हरखचंदजी, जयचंदजी, कल्याणचंदजी, खूबचंदजी और न्यायचंदजी आचार्य हुए, विस्तार भय से इनका नामोल्लेख ही पर्याप्त समझा गया. कुंवरजी पक्ष, धर्मसिंहजी, ऋषि और धर्मदासजी आदि की परम्परा का इतिहास भी गौरवपूर्ण रहा है और इनके मुनियों ने समय-समय पर जैन संस्कृति के विकास में योग भी दिया है, पर उन सभी का नव्य मूल्यांकन सीमित समय और साधन द्वारा संभव नहीं. मेरी मर्यादा कानजीऋषि तक ही सीमित थी. यहाँ पर लोकाशाह के परवर्ती मुनियों के जीवन पर मार्मिक प्रकाश डालनेवाले जो कतिपय काव्य प्रकाशित किये जा रहे हैं, इनके अतिरिक्त भी स्थानकवासी मुनियों की प्रशस्ति स्वरूप कई पद्य लिखे गये हैं, जिनका मारवाड़ और मेदपाट से संबंध रहा है. किसनमुनि पूज्य लालचंदजी, विजयचंदजी आदि अनेक प्रभावशाली आचार्य और मुनियों द्वारा विविध विषयक साहित्य भी निर्मित हुआ है, जो अद्यावधि अज्ञात ही रहा है, पर उन सभी का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत करना, समय और श्रमसाध्य कार्य है. इतना कह देना आवश्यक है कि चाहे जैन संप्रदायों में कितना ही मनोमालिन्य हो, पर मेवाड़ जैसे कठिन बिहार के प्रदेश में स्थानकवासी-मुनियों ने जैन संस्कृति की व्यापक एवं सार्वभौमिक भावनाओं को बनाए रक्खा है. शताधिक कृतियों की प्रतिलिपि कर भाषा साहित्य की परम्परा को गतिमान किया और अपनी औपदेशिक वाणी से जन-मानस को विचारपूर्ण क्रान्ति के लिये प्रोत्साहित किया. जो ऐतिहासिक काव्य उपलब्ध हुए हैं वे मूल रूप में इस प्रकार हैं- १ नॅम कवि रचित बड़ा बरसिंघ जी का छंद पास जिणंद परम पद पहिलो करीस प्रणाम । गुण व्रणवं वरसंघ रा नेज गुण ताहारि नांम ॥ यादे अनादे पुर दीपे गूजर देस । लाघो द्रुम श्रावक लकि प्रवचन तणें प्रवेस || पाटण Jain Educational 30030303003003003030300300303030300 www.jalnenbrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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