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शान्ता भानावत : तिलोकऋषिजी की काव्यसाधना : १७३
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विषयक ३ दोहे दिये गये हैं. यही नहीं, बीच-बीच में छत्रबंध, दुर्गबंध तथा गोमूत्रिका बंध में तीन प्रकार के नमस्कार मंत्र दिये गये हैं. रचनाकाल, रचनाकार आदि का नाम भी बड़ी खूबी से लिख दिया गया है. अशोक वृक्ष, ज्योतिषचक्र आदि भी इसी प्रकार की कलाकृतियाँ हैं. रूपकात्मक चित्रकाव्यों में कवि की रूपक योजक-वृत्ति ही काम करती रही है. ज्ञानकंजर और शीलरथ के रूपकात्मक चित्र अत्यन्त सुन्दर बन पड़े हैं. हाथी कवि का प्रिय प्रतीक रहा है. 'ज्ञानकुंजर' उन लोगों के लिए, जो पढ़े-लिखे नहीं हैं, जैन धर्म के समग्र सिद्धान्तों को समझने की कुंजी है. विभिन्न आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण अक्षरों द्वारा हाथी का यह चित्र बड़ा भव्य और विशाल है. २४ तीर्थंकरों के नाम लिखकर हाथी की सूड, गणधरों के नाम लिखकर उसका कान, ज्ञान रूप उसकी आँख, धीरज और धर्म लिखकर उसकी दंतूरे, बत्तीस आगमों के नाम लिखकर उसके पाँव, पाँच महाव्रतों के नाम लिखकर उस पर चढ़ने की सीढ़ियाँ आदि बनाई गई हैं. दान दया रूपी महावत के हाथों में उपदेश और ज्ञान का अंकुश दिया गया है. उसके ऊपर देव, गुरु धर्म की छत्री है जिसमें सम्यक्त्व की डंडी लगी हुई है. अंबाड़ी को विभिन्न शास्त्रीय गाथाओं से सजाया गया है. अंबाड़ी के ऊपर स्थित मन्दिर के दोनों ओर, ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप रूप चार स्तंभ हैं. इसके मध्य प्रतिभाशाली मुनि की आकृति है. ऊपर धर्मध्यान और शुक्लध्यान की पताका लहरा रही है. महाकवि तुलसी रूपकों के बादशाह माने गये हैं. आध्यात्मिक क्षेत्र में रूपकों की सृष्टि करनेवाला यह तिलोक कवि भी किसी बादशाह से कम नहीं है. (ख) गूढार्थमूलक : संत कवियों ने अपने सिद्धान्तों को कहीं-कहीं बड़ी रहस्यात्मक भाषा में प्रतिपादित किया है. इस प्रकार की गुढ अभिव्यक्ति को 'उलट बांसियों' के नाम से अभिहित किया गया है. इसका कारण यह रहा कि यह अभिव्यक्ति सामान्य लोकनियमों का अतिक्रमण ही नहीं करती, उससे नितान्त विरोध और वैषम्यभाव भी प्रकट करती है. आलोच्य कवि तिलोक के काव्य में इस प्रकार की उलट बांसियां तो नहीं मिलती जिस प्रकार की कबीर के काव्य में. फिर भी कवि-अपनी शब्दक्रीड़ा करना नहीं भूला. सगुण भक्त कवियों में सूर ने जिस प्रकार दृष्टिकूट पद लिखे हैं उसी प्रकार तिलोकऋषि ने भी कतिपय गूढार्थ-व्यंजक दोहे लिखे हैं. उन्हें कूटशैली के अन्तर्गत रखा जा सकता है. यहाँ इस प्रकार का एक दोहा दृष्टव्य है: दधिसुत-रिपु ते जाणिये, तस रिपु-रिपु ते जाण, कंठ छवि तसु वाहने, लछण सो है सुजाण,
येह जिनराज ने भजो नित । अर्थ : दधिसुत अर्थात् चन्द्रमा, उसका रिपु राहु, राहु का रिपु विष्णु (राम) विष्णु का रिपु रावण. रावण का स्वामी शिव, उस कंठ छबिवाले शिव का वाहन वृषभ जिसके चिह्न रूप से सुशोभित होता रहता है, ऐसे जिनराज अर्थात् ऋषभदेव भगवान का नित्य भजन करो. इस कूट शैली के साथ-साथ कवि ने संस्कृत की सूक्तियों पर भी कवित्त लिखे हैं. इस शैली को 'समस्यापूर्ति' के अन्तर्गत रखा जा सकता है. 'मनुष्यरूपेण मृगाश्चरंति, मनुष्यरूपेण श्वानो भवंति, मनुष्यरूपेण खराश्चरंति' आदि पर लिखे गये इनके कवित्त बड़े मर्मस्पर्शी और प्रभाव डालने वाले हैं. तिलोक ऋषि की इन काव्यगत विशेषताओं के आधार पर यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि यह कवि संत कवियों में अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए है. संत कवियों ने सामान्यतः अपनी रचनाएँ दोहा और पद में की पर इस कवि ने रीतिकालीन कवियों के सवैया और कवित्त जैसे छन्द को अपनाकर उसमें जो संगीत की गूंज और भावना की पवित्रता भरी वह अन्यतम है. तिलोकऋषि के काव्य में भक्तियुग की रसात्मकता और रीतियुग की कलात्मकता के एक साथ दर्शन होते हैं. यह अपने आप में कम वैशिष्ट्य नहीं है.
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