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१०२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : प्रथम अध्याय
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ज्ञानचन्दजी की बात सुने न चेतनराय, श्रावें नहीं दयाचन्द सदा सुखदाई है,
कहत तिलोकरिख मनाय लीजे नेमिचन्द, नहीं तो कालूराम अायां विपत सवाई है। विराट् सांग रूपक बाँधकर कवि ने जो उपदेश दिये हैं वे चमत्कार प्रकट नहीं करते वरन् उनमें निजीपन, घरेलू वातावरण और लोकव्यवस्था का विशिष्ट चित्रण है. राज्यव्यवस्था के कुत्सित और आदर्श दोनों चित्रों को कवि ने बड़ी खूबी के साथ अन्तरंग-आत्मपरक-व्यवस्था के साथ फिट बैठाया है. कुत्सित चित्र:
काया रूप नगरी में चिदानन्द राज करे, क्रोध-कोटबाल मान-सिंह प्रधान है,
कपट हों लोभ छड़ीदार बन्यो तामें, मोह फौजदार अति करत गुमान है। आदर्श चित्र:
जीव रूप राजा समकित परधान जाके, ज्ञान को भंडार शील रूप रथ सारके, क्षमा रूप गज मन हय को स्वभाव वेग, संजम की सेना तप श्रायुध अपार के | सज्झाय बाजिंत्र, शुभ ध्यान नेजा फरकत, रैयत छ काय सो बचाय कर्म मार के,
मोक्ष गढ जीतवा को, कहत तिलोकरिख, करिये संग्राम ऐसी धीरजता धार के । कलात्मक कृतियाँ : तिलोकऋषि के कवि-व्यक्तित्व के साथ उनके चित्रकार-व्यक्तित्व ने मिल कर कई नवीन, मौलिक, कलात्मक कृतियों को जन्म दिया. इन कलात्मक कृतियों में कवि की एकाग्रता, उसकी सूझ, लेखनकला चित्रण-क्षमता और अपार भाषाशक्ति का परिचय मिलता है. ये कलात्मक कृतियाँ दो प्रकार की हैं : (क) चित्रकाव्यात्मक : संस्कृत आचार्यों ने चित्रकाव्य को अधम काव्य कहा है और ध्वनिकाव्य को श्रेष्ठ काव्य. विवेच्य चित्रकाव्य उस तथाकथित "चित्रकाव्य" से भिन्न है. यहाँ “चित्रकाव्य" का प्रयोग काव्य की विशेष लेखनपद्धति द्वारा निर्मित चित्र के प्रसंग में किया गया है. ऐसे चित्रकाव्य की सृष्टि वही कर सकता है जिसमें कवि का हृदय हो, चित्रकार का लाघव हो, गणितज्ञ की बुद्धि हो और स्थितप्रज्ञ की तन्मयता हो. कहना न होगा कि तिलोकऋषि ने इन सबका दायित्व कुशलता के साथ निभाया है. इन चित्रों को "काव्यात्मक चित्र" भी कहा जा सकता है पर प्रधान दृष्टि चित्र बनाने की रही है. इसीलिये हमने इन कृतियों को "चित्रकाव्यात्मक" संज्ञा दी है. ये चित्रकाव्य दो प्रकार के हैं. सामान्य और रूपकात्मक. सामान्य चित्रों में कवि ने स्वरचित या किसी प्रसिद्ध कवि की कविताओं-दोहे, सवैये, कवित्त आदि को इस ढंग से लिखा है कि एक चित्र सा खड़ा हो जाता है. समुद्रबन्ध, नागपाश बन्ध आदि कृतियाँ इसी प्रकार की हैं. इन चित्रों के नामानुरूप भाव वाली कविताओं को ही यहाँ लिपिबद्ध किया गया है. समुद्रबन्ध कृति में संसार को समुद्र के रूप में उपमित करने वाली कविता का प्रयोग किया गया है. नागपाशबन्ध में भगवान पार्श्वनाथ के जीवन की उस घटना को व्यक्त करने वाला छन्द सन्निहित है जिसमें उन्होंने कमठ तापस की पंचाग्नि से, संकटग्रस्त नागदम्पती का उद्धार किया था. प्रयुक्त छन्द इस प्रकार है :
अमर उद्धरण धीर गम्भीर, भविक भव पार उतारण रक्षा करण समंद कमठ तापस मद हारण । संकट उरगंगवाय खरग पदवी ठवी सारण, विकट कमठ दियो कष्ट सही जलदल विस्तारण ।
जब नागदेव करूर भये दहल तपविन न गण, सख दियो त्रिविध विचित्र सही पारस गरू तारण तरण । "चित्रालंकार काव्य" कवि की एकाग्रता, बौद्धिकता और श्रमशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है. इसमें प्रारम्भ से अंत तक की कुल ३६ पंक्तियों में ३६ दोहे लिखे गये हैं. प्रथम पंक्ति में मंगलाचरण, द्वितीय पंक्ति से पच्चीसवीं पंक्ति तक २४ तीर्थंकरों के स्तुतिपरक २४ दोहे हैं. तदनन्तर क्रमशः नमस्कार मंत्र के ५ दोहे, त्रिरत्न के ३ दोहे और देव, गुरु, धर्म
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