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१२० : मुनि श्रीहजारीमलजी स्मृति-ग्रन्थ : अध्याय
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लगता है मुझे यह गुरु का प्रसाद हैतभी-- मन मेरे लाल का खोया है, सन गया है शायद-निर्वेद के भाव में गुरु की वैराग्यमूलक वाणी से. तभी तो कहता है-कहा है अभीमां ! वर्तमान पर सोचने वाली हो तुम तो. छोड़ा अतीत और भविष्य के विचार को. सत्य है विचारना ही वर्तमान का. मन के-उलझने सेअतीत और भविष्य के काल्पनिक जाल में, कर्मनिबद्ध होती है आत्मा. पुत्र सच कहता हैवर्तमान सत्य है. ममता के विचार जगे. और हौले से पलकें उठा कर देखाविनीत रूप में बालक हजारी खड़ा है, नेत्र झुकाकर-मां के सम्मुख. साधना की दिशा में बढ़ने को, पाने को आज्ञा मां की. पर मां खोई है विचारों में, बालक हजारी ने सहसा ही तोड़ कर विराम कहाबोलो मां, 'बोलो तो'तुम क्यों मां मौन हो. कहा था-गुरुणी ने जो सत्य है-है न सत्य ? हां वत्स !, वाणी झंकार उठी मां के निश्चय की ! सत्य है-गुरुणी का कथन भी. और उचित है यह भी जो-तू कह रहा. तो मां, फिर आज्ञा दे दो न-दीक्षा की. चाहता हूँ धर्म की सेवा में समर्पित यह जीवन हो. बात कह मौन हुआ हजारी और फिर डूबी-सी ममत्व के सागर में. बैठी थी दीवार से सटकर, ताक रही थी शून्य में-ऊंचे आकाश को.
संध्या तब गहरी थी-उतर आई, प्रकृति शान्त थी खामोश थी. हवा भारी थी—उदासी से डूबी हुई.
और भारी था-मां का कलेजा भी. पर वह मां थी--स्नेहमयी. कर्तव्य और धर्म के भाव में पगी हुई. तभी एक-गर्जन हुआ-सन्नाटा चीरकर बादल की कोख से बिजली गरज उठी, बेग उठा प्रभंजन का-प्रकृति मचल उठी. मां ने अपने को समेट कर पुत्र को वक्ष से लगा कर मस्तक पर प्यार का चुम्बन दे बोली वह--करुणामयी-. तू मेरी ममता का केन्द्र है, लाल मेरे जीवन का तू ही सर्वस्व है, पर, पाषाण सा अचल है-निश्चय तेरा. यह मैं जानती हूँ. तेरे भावों को कर लिया है हृदयगंम मैंने. तुझे सुख है साधना में हीतो मैं आज्ञा देती हूँतेरा पथ प्रशस्त हो—सेवा कर जन-जन की. कि सहसा एक झोंका-सा आया, और भर उठी धरती आलोक सेबादलों ने गूंज कर नौछावर करदी बूंदों की. मां तू कितनी अच्छी हैमेरी मां, गद्गद हुई वाणी हजारी की. मां के चरणों की धूल लगा मस्तक पर पुत्र ने विदा ली ! सेवा व्रत लिया. लाल मेरे-पर कंठ अवरुद्ध हुआ जननी का. भगवान् महावीर तेरा कल्याण करेंऔर आनन्दमय-व्यथा के कोष से--- टपक पड़े-दो बूंद आँसूमोह छोड़ पलकों का.
प्रो. राधेश्याम त्रिपाठी, एम. ए.
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