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१०६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
राजस्थान के उस जैन मुनिराज को मेरी रामजी म० के स्मरणपूर्वक भावांजलि समर्पित है.
स्वामी श्रीनेनूरामजी आयुर्वेदाचार्य
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भावसमर्पित श्रद्धांजलि
भारतीय संस्कृति व्यक्तिपूजा में नहीं, गुणपूजा में विश्वास करती है. विशिष्ट गुणवान् व्यक्ति ही वस्तुतः जन-जन के मन में विशिष्ट श्रद्धा का केन्द्र बनता है.
मानव की पूजा कौन करे, मानवता पूजी जाती है.
साधक की पूजा कौन करे, साधकता पूजी जाती है. श्रमण-संघ के महाप्राण सन्त, ऋषिप्रधान भारत की महान् सम्पत्ति, आध्यात्मिक क्रांति के संदेशवाहक, श्रीहजारीमलजी महाराज एक ऐसे ही अनुपम व्यक्तित्व के धनी थे. उन महान् सन्त के पुण्यदर्शन करने का सुअवसर मुझे ब्यावर में प्राप्त हुआ था. उनके शुभ दर्शन पाकर मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा. उनकी पीयूष-वर्षिणी वाणी श्रवण कर मेरे हृदय में अमन्द आनन्द की मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगी ! आज वे भौतिक रूप में हमारे सम्मुख नहीं रहे हैं परन्तु सद्गुणों के आदर्श के रूप में आज भी वे हमारे समक्ष ही हैं. उनके सरल व सरस स्वभाव से मैं अत्यधिक प्रभावित हुई हूँ. मैंने देखा उनके हृदय में अनुपम उदारता, भावों में गाम्भीर्य और वाणी में माधुर्य ! उनका जीवन आचार-विचार से मंजा हुआ व संयम-साज से सजा हुआ था. त्याग, तप और क्षमा उनके प्रधान आभूषण थे. वे आध्यात्मिक सौन्दर्य के आलोक से आलोकित थे, पौरुष की साक्षात् मूति थे. उनकी सरल प्रकृति और भव्य आकृति देख मेरा मन अपने आप बोल उठा-इस महान् सन्त के अंदर एक महान् आत्मा निवास करती है. उनके जीवन की मधुर सुवास मेरे मन के कण-कण को आज भी सुवासित कर रही है. आज वे हमारे चर्म-चक्षुओं के सामने नहीं रहे किन्तु उनके तप और त्याग का उज्ज्वल प्रकाश हमारे अंतश्चक्षुओं के सामने चमक रहा है. मैं विश्वास करती हूँ कि उनकी मधुर स्मृति हमें युग-युग तक संयमीय जीवन के लिये पावन प्रेरणा प्रदान करती रहेगी.
भार्या श्री कौशल्याकुमारीजी, जैनसिद्धांताचार्या
बहुरत्ना मरुधरा दो पहलू हैं ! एक दिखावटी आडम्बर और कृत्रिमता से लदापदा, दूसरा आडम्बरहीन और वास्तविकता से ओतप्रोत. दोनों में भिन्नता है. दोनों के आकर्षण में भी पर्याप्त अन्तर है. पहला चाकचिक्यपूर्ण है. दूसरे आकर्षण में सात्विकता है. वहां चाकचिक्यता जैसी चौंधिया देने वाली कोई कृत्रिमता नहीं है. स्वभावतः ही उस ओर दर्शकों की आंखें कम पहुंचती हैं. किन्तु जो कोई भी उसे पा लेता है, सचमुच उसे अपूर्व सहजानन्द का अनुभव होता है. क्योंकि वहाँ पर वास्तविकता के दर्शन होते हैं। स्वर्गीय स्वनामधन्य परम श्रद्धेय श्रीहजारीमलजी म० का जीवन, निलिप्त व निर्विवाद रूप से दूसरे उज्ज्वल पहलू-सा था. यह बात मैं औपचारिक रूप में नहीं कह रहा हूँ बल्कि अनुभव के आधार पर ही इसका प्रकटीकरण है. यों तो एक बार उनके दर्शन पहले भी हुए थे. परन्तु उसे मैं एक झलक मात्र ही स्वीकार करता हूँ. उनसे मैं पूरा-पूरा परिचय नहीं कर पाया था. पुनः भीनासर सम्मेलन के अवसर पर एक उद्यान में उनके शुभ दर्शन का सौभाग्य मिला. उसे मैं उनके अन्तिम दर्शन भी कह सकता हूँ. उसके बाद दोबारा उनके दर्शन का लाभ नहीं प्राप्त कर पाया. प्रथम दर्शन में ही मंत्री श्रीजी के मृदुल व्यक्तित्व की छाप जो मुझ पर पड़ी तो सचमुच हृदय और मस्तक दोनों ही श्रद्धावनत हो गये.
Saama
Jain E
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