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विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ: १०५
की दरिद्रता नहीं थी. व्यक्तिगत साधना में अत्यन्त दृढ़ थे, अन्य सन्तों के प्रति कृपा और स्नेह उनकी आँखों से अहर्निश बरसता रहता था. यही कारण है कि साधुसमुदाय उन्हें अत्यन्त आदर और श्रद्धा की दृष्टि से देखता था. उनके कृतित्व-जगत् और व्यक्तित्व-जगत् के अनेक वैशिष्ट्य थे, मैं कुशल कलाविद् नहीं कि उन गुणाकर के गुण-पुष्पों की माला गूंथ सकू. उनका पुण्य स्मरण हृदय-भूमि में केवल श्रद्धा और आस्था ही अंकुरित करता है. उनका तप, त्याग और साधना इतनी कठोर थी कि आज मेरा मन यह कहने को विवश हो रहा है-गुरुदेव तुम केवल श्रद्धा हो.
श्रीमगरूपचन्दजी भण्डारी
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मेरे लिए वे मरुधरा के धर्मप्राण आचार्य श्रीजयमलजी म० की सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे. श्रमण संघ की अखण्डता के लिए प्रवर्तक पद का परित्याग कर श्रमणवर्ग में उदाहरण सिद्ध हुए. उनके असाधारण व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें श्रमण-संघ ने मारवाड़ प्रान्त का मंत्री पद प्रदान किया. पूर्ण उत्तरदायित्व पूर्वक उन्होंने उसको निभाया. साधकों का समुचित मार्गदर्शन किया. वे आत्मविद्या के ज्ञानी साधक थे. परमयोगी थे. उनकी योग-साधना का प्रत्यक्ष रूप उनके दर्शन मात्र से प्रतिबिम्बित होता था. मैंने उनके दर्शन किये-तो वे मेरे लिए श्रद्धा के अमर आधार बन गए. वे गए. मन को असीम कष्ट है, पर मेरी श्रद्धा का सुहाग मर कर भी वे अमर कर गए. मैं श्रद्धा सहित उस गुणी योगी पुरुष मुनि श्रीहजारीमलजी म० के प्रति नत हूँ.
प्रवर्तक श्रीशुक्लचन्दजी म०
भावांजलि
वीर, रणभूमि में लड़कर देशरक्षा के स्वाभिमान का सुख पाता है. वह वीर युद्ध में काम आ गया यह जानकर भी उसके परिजन परिताप का अनुभव नहीं करते. उसकी बहादुरी से प्रेरणा ही लेते हैं. सन्त भी जीवन भर युद्ध करता है. सन्त महात्माओं का युद्ध राम और रावण का युद्ध है. काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर, छल आदि अनेक बुराइयाँ दशमुखी रावण की सूचक हैं. प्रेम, जगत्वत्सलता, सदाचार और ईश्वरभक्ति आदि रामवृत्ति, भगवान् राम की सूचक हैं. इसलिए सन्त, जीवन पर्यन्त राम का प्रतिनिधित्व करता हुआ युद्ध करता रहता है. अतः सन्त परम योद्धा है. देशरक्षा के लिये लड़ाई नियत समय तक ही होती है. सन्तवृत्ति में बुराइयों से जीवनपर्यन्त लड़ाई होती रहती है. लौकिक लड़ाई में मरने वालों का दुख नहीं मनाया जाता. यह सब इसलिये कि उसने युद्धभूमि में शत्रु को पीठ नहीं दिखाई. सन्त भी बुराइयों से अभिभूत होकर आत्मशत्रुओं को पीठ नहीं दिखाते. जैनमुनियों के नियम अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा कठोर होते हैं. अत: जैनमुनि की पोषाक पहनकर आत्मशत्रुओं से लड़ाई लड़ना और भी कठिन है. प्रवर्तक मुनि श्रीहजारीमलजी म० से अपने राम-(नेनूराम) की कभी प्रत्यक्ष 'रामा श्यामा' नहीं हुई थी, परन्तु सन्तों की रामा श्यामा तो प्रभु भक्ति में ही होती है. जैन समाज ने उनकी स्मृति को कायम रखने की दृष्टि से 'स्मृतिग्रन्थ' का आयोजन किया है. यह बहुत सुन्दर काम है. सन्तजीवन के अनुरूप है.
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