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५६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्य
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मेला ही होता था। मैंने हर बार ठट्ठ के ठठ्ठ नर- कुछ ही दिनों में गुरुदेव श्री के उपदेश मेरे जीवन के नारियों को पूज्य श्री के यहाँ देखे । सभी लोग अपने-अपने अंग बन गये । मैं अनायास ही उधर ढलने लगी। गाँवों की विनति रखते, हमारे भाई भी अर्जी करते और गुरुदेव श्री के त्याग, तप, सेवा और ज्ञानात्मक मैं सोचती, गुरुदेव हमारी विनति मन्जूर कर लें तो बड़ा व्यक्तित्व का वह असर हुआ कि मैं माँ का अनुसरण करने आनन्द आये।
को उत्सुक हो उठी-इतना ही नहीं, मेरा संयम के प्रति इतना और कई बार विनति मन्जूर हुई । आचार्य श्री कोशी- अधिक आकर्षण जग उठा कि एक-एक दिन की देरी मुझे थल पधारे हर बार हम फूले नहीं समाये।
वर्ष जैसी लगने लगी। मुझे याद आया, पूज्य श्री की मुनि मण्डली में एक उमंगों के साथ कई अवरोध भी खड़े हो जाया करते ऐसे तेजस्वी और सक्रिय मुनिराज थे जो सेवा, ज्ञानारा- हैं, मेरे साथ भी यही हुआ किन्तु गुरुकृपा से सारे अवधना तथा संघ संचालन जैसे कठिन कार्यों को एक साथ रोध हटे और हम देवरिया गांव में एक सुन्दर समारोहनिभा रहे थे । पाठक असमंजस में न रहें वे तेजस्वी सन्त पूर्वक संयम के पथ पर बढ़ चलीं। यह संवत् १६६६ की रत्न हमारे परम आराध्य पूज्य गुरुदेव श्री अम्बालाल जी बात है। महाराज ही थे।
मैं बहुत दूर अतीत में चली गई । मैं अपनी आत्मकथा ___ मुनिमण्डली के लिए आहारादि लाकर सेवा करना, नहीं लिख रही हूँ-मैं मेरी उस अभिभूतावस्था का सघन प्रवचन करना, दिन में महासती जी को शास्त्रों की बाँचनी कारण बता रही हूँ कि जीवन निर्माता सम्प्रेरक, इस अद्देना, बहनों को बोल थोकड़े सिखाना रात्रि को श्रावकों भुत व्यक्तित्व को किन उपाधियों से मन्डित करू किन को ज्ञान ध्यान देना, आचार्य श्री के नेतृत्व में चतुविध संघ शब्दों से व्यक्त करूं? कुछ सूझ भी नहीं पड़ रहा है। को आचार्य श्री की भावना के अनुरूप मर्यादानुसार निर्दे- मेरी संयम यात्रा के ३६ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। शन देना आदि अनेक कार्य बड़ी तत्परता के साथ करते आज संयम मेरा जीवन है। मैं और मेरा संयम हम दो मैंने इन्हें देखा।
नहीं होकर एक हैं। मैं देख रही हूँ, दीप शिखा की तरह पूज्य आचार्य श्री के धर्मोपदेश तथा परमविदुषी महा- मेरी अध्यात्म ज्योति ऊर्ध्वगामी बनी और बनती जा रही सती जी श्री केरकुवर जी महाराज के पवित्र सानिध्य से है, यह सब इस दिव्य व्यक्तित्व का जादू है, जिसका संघ मेरी माता के मन में वैराग्यांकुर अंकुरित हुआ और साथ अभिनन्दन करने जा रहा है। ही, वह यह भी चाहती थीं कि मैं भी दीक्षित होऊँ तो यह तैल न हो तो दीपक बुझ जाए। मेरे संयम के दीप एक कठिन प्रश्न था । कठिन इसलिए कि मैं मेरी मां को को तेल चाहिए था और वह मुझे बराबर मिला । संयम भी संयम नहीं लेने देना चाहती थी, तो मेरा उसके साथ के लिए ज्ञान ही तो तेल है। आज मेरा कहा हुआ प्रत्येक हो जाना तो बड़ा कठिन था। इस बात को मेरी माँ शब्द इस दिव्य चेतना का दिया हुआ है। मेरी तो केवल अच्छी तरह जान चुकी थी, उसने एक नया प्रयोग किया। वे त्रुटियाँ हैं जो जहाँ-तहाँ मेरी स्खलना से प्रकट हो जाया वह मुझे अपने साथ मुनि दर्शन को ले जातीं और हर बार करती है । जीवन का सत्यं शिवं सुन्दरम् जितना भी उपवह मुझे गुरुदेव श्री के सामने खड़ी रखती और उपदेश स्थित हो पाया यह सब इन्हीं श्रद्धेय की कृपा का प्रसाद है। सुनने का आग्रह करती। मैं विवश खड़ी तो रहती किन्तु मैं अपनी स्खलनाओं व त्रुटियों को जानती हूं-वे घनी दीक्षा लू इस विषयक कोई उपदेश मुझे नहीं चाहिए था। हैं, किन्तु अन्तश्चेतना की गहराई के साथ अभिभावना के
किन्तु मेरे अनचाहे से क्या होना गुरुदेव श्री कुछ न इन क्षणों में क्षमा याचना की अभिलाषा पूर्वक मेरे परमाकुछ प्रतिबोधात्मक कह ही जाते ।
राध्य का एक बार पुनः अभिनन्दन वन्दन करती हुई शरकुछ दिन तो उपेक्षा ही करती रही किन्तु न मालूम णापित हो रही हूँ। क्यों, कुछ ही दिनों में मेरे अन्तर में एक नया परिवर्तन नेतृत्व की सघन छांह जो अब तक मिली, अगले शेष आने लगा।
जीवन को भी यही नेतृत्व मिलता रहे, आशा के इस मंगल मैं महाराज श्री की बात ध्यान से सुनने लगी । इतना दीप को संजो कर अभिवन्दना के इन अद्भुत क्षणों से ही नहीं, वे बातें मुझे प्रिय भी लगने लगीं।
बाहर आ रही हूँ।
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