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________________ ✩ 000000000000 000000000000 40000000 ५३० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ एक प्रति दिन में और एक रात में इस तरह दो प्रति लिखते । कहते हैं उन शास्त्रों की उन्होंने प्रतिलिपियाँ कर लीं। प्रतिलिपि के साथ गहनतत्त्व ज्ञान का अभ्यास भी होता गया । अभ्यास के साथ उनका चिन्तन भी चलता रहा । उन्होंने देखा, भगवान महावीर का यथार्थं आचार मार्ग तो आज विलुप्त-सा हो चुका है । चारों तरफ आडम्बर और शिथिलाचार छाया हुआ है । साधु अपनी मर्यादा को भूल चुके हैं, धर्म क्रियाओं से हिंसा का प्रत्यक्ष तांडव चल रहा है। उन्होंने अनुभव किया कि शास्त्रों में मूर्तिपूजा और मन्दिर आदि का कोई अस्तित्व और महत्व है हीं नहीं किन्तु आज तो सारा जैन संघ इन्हीं को केन्द्र बनाकर लगभग सभी तरह के आस्रवों का सेवन करने में लगा हुआ है । उन्हें भगवान महावीर के मार्ग की यह होनावस्था देखकर बड़ा दुःख हुआ । जैन धर्म और साध्वाचार के नाम पर जो चल रहा था वह श्री लोकाशाह के लिए नितान्त असह्य था । एक बार यति जी शास्त्र लेने आये । घर पर शाहजी की पत्नि थी, उसने कहा- दिन वाले दूं, या रात वाले ? इस तरह कहने से यति जी कुछ शास्त्र लेकर गये किन्तु उन्होंने आगे लिखाना बन्द कर दिया । श्री लोकाशाह को जो ३२ शास्त्र मिले, इनमें भी बहुत कुछ जैन तत्त्वों का खजाना उन्हें मिल चुका था । उन्होंने एक दिन व्याप्त विकारों का सुदृढ़ विरोध करने का निश्चय कर लिया । उत्क्रान्ति का प्राथमिक प्रयास श्रीमद् लोकाशाह का विरोध किसी व्यक्ति का विरोध नहीं था। उनका विरोध उन आडम्बरों, विकारों और शिथिलाचारों से था जो जैन धर्म की वास्तविकता को मिटाये जा रहे थे । उन्होंने अपने विचारों के प्रचार के लिए कोई बड़े आयोजन नहीं किये, न प्रचार दौरे किये। उन्होंने केवल अपने सम्पर्क में आने वालों को वास्तविक तत्त्वज्ञान और आचार मार्ग बताना प्रारम्भ किया । श्री लोकाशाह का तत्त्व - सन्देश यथार्थ पर आधारित था। वे जो भी कहते, शास्त्र पाठों के द्वारा उसे पुष्ट करते । उनके तर्क बेजोड़ और अकाट्य होते थे । फलतः जो भी उनके सम्पर्क में 'आता, उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । कुछ ही समय में श्री लोकाशाह के कई अनुयायी तैयार हो गये और वे श्री लोंकाशाह के घर पहुँच कर तत्त्व चर्चा किया करते । श्री लोकाशाह अपने घर पर ही आगत व्यक्तियों को धर्मोपदेश दिया करते । वे अपने धर्मोपदेश में मुख्य रूप से निम्न सिद्धान्तों की पुष्टि करते । ( १ ) तीर्थंकर भगवन्तों की मूर्ति और मूर्तिपूजा का शास्त्रों में कोई आधार नहीं । (२) प्रतिष्ठा आदि कार्यों में होने वाली हिंसा धर्म नहीं, अधर्म ही है । (३) वर्तमान साध्वाचार, भगवान महावीर का श्रमणाचार नहीं है । श्रमणों को एक ही स्थान पर सुविधापूर्ण होकर रहना, हिंसा के कार्यों में भाग लेना, द्रव्यादि का संग्रह करना नितान्त अकल्पनीय है । श्री लोंकाशाह ये कुछ मुद्दे ही विकृत वाद में विप्लव मचाने को काफी थे । श्री लोकाशाह का प्रचार बड़ी तेजी से बढ़ने लगा । फलस्वरूप स्थापित सुविधा बाद में हलचल फैल गई । उधर से भी प्रबल विरोध चालू हो गया । श्री लोकाशाह को मिथ्यात्वों और उत्सूत्र प्ररूपक कहा जाने लगा । यथास्थितिवादियों ने उस समय के सुप्रसिद्ध संघपति, पाटन के श्री लखमशी भाई को लोंकाशाह को समझाने भेजा । श्री लखमशी भाई बड़े शास्त्र रसिक और संघ हितैषी श्रावक थे । उन्होंने श्री लोंकाशाह को समझाने का प्रयास किया, किन्तु जब श्री लोकाशाह ने शास्त्र रहस्य प्रकट कर लखमशी भाई के सामने रखा और प्रचलित परिस्थितियों की विडम्बना का परिचय दिया तो वह चकित रह गया । श्रीमद् लोकाशाह ने कहा, लखमशी माई ! जैन धर्म आज हिंसा और पाखण्ड के दो पाटों के बीच पिसा जा रहा है और सुविधावादी धर्मगुरु और पंथवादी उपासक उसे पीस रहे हैं । उठो! जिन शासन को इस दशा से मुक्त करो । फफक For Private & Personal Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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