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जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ५२३
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वर्षों से स्थूलभद्र मुनि आये अतः उनकी बहने दर्शनार्थ गईं। वे भी साध्वियाँ ही थीं। श्री स्थूलभद्र मुनि ने अपनी बहनों को चमत्कार बताने हेतु सिंह का रूप धारण कर लिया।
यह घटना जब भद्रबाहु ने सुनी तो उन्होंने शेष चार पूर्वो को वाचना देना बन्द कर दिया । आचार्य स्थूलभद्र जिन शासन के जगमगाते दीप थे। उन्होंने आगम वाचना सम्पन्न कराकर संघ पर अनन्त उपकार किया। .
ये कुल ३० वर्ष गृहस्थ रहे । २४ वर्ष सामान्य मुनि और ४५ वर्ष आचार्य पद को सुशोभित किया। इस तरह ६६ वर्ष का आयुष्य भोग कर वैभार गिरि (राजगृह) पर १५ दिन के संथारे सहित स्वर्गलोक को प्राप्त हुए।
(8) आचार्य महागिरि आचार्य महागिरि एलापत्य गोत्रीय थे, ३० वर्ष गृहस्थ पर्याय में पले । आचार्य श्री स्थूलभद्र द्वारा प्रतिबोधित हो संयमी बने । ४० वर्ष सामान्य मुनिपद तथा ३० वर्ष आचार्य पद पर सुशोभित होकर वीर नि. सं. २४५ स्वर्गवास पाये ।
आचार्य महागिरि एकांत निष्ठ दृढ़ साधनानिरत उग्र तपस्वी, दश पूर्वधर, बड़े प्रभावक मुनिराज थे। इन्होंने अपने जीवन काल में ही संघ का भार अपने परम सहयोगी आचार्य सुहस्ति को सौंप दिया था। ये त्याज्य आहार का सेवन करते और प्रायः एकांत ध्यान करते । आचार्य महागिरि सुदृढ़ आचारवादी महात्मा थे।
(१०) आचार्य सुहस्ति आचार्य सुहस्ति का गार्हस्थ्य काल २३ वर्ष, सामान्य मुनिव्रत ३१ वर्ष तथा आचार्य काल ४६ वर्ष, इस तरह कुल १०० वर्ष का आयुष्य पाया।
आचार्य महागिरि की तरह सुहस्ति मी आचार्य स्थूलभद्र से दीक्षित हुए तथा स्थूलभद्र और आचार्य महागिरि के सानिध्य में दीर्घकाल तक ज्ञानाराधना कर, दश पूर्वधर बने ।
इन्होंने अपने आचार्य काल में जिनशासन की महती सेवाएं की। आचार्य सुहस्ति ने राजा सम्प्रति को सद्बोध देकर जिनमार्ग का सुदृढ़ अनुयायी बनाया।
राजा सम्प्रति ने जैनधर्म के प्रचार हेतु अनेक प्रयत्न किये। उन्होंने अपने पुत्र तथा पुत्रियों को मुनिवेश पहना कर विदेशों तक में भेजा और जनता को श्रमणाचार का परिचय दिया जिससे मुनियों को विचरने में कठिनाई का सामना नहीं करना पड़े।
___ जैन इतिहास प्रसिद्ध अवन्ति सुकुमार मुनि इन्हीं आचार्य सुहस्ति के सुशिष्य थे। श्मशान में ध्यान करते हुए शृगालिनी के द्वारा इस मुनि का वध हुआ था । मुनि बड़ी धैर्यता से आत्मरत रहे और मृत्यु प्राप्त कर नलिनी गुल्म विमान में देव बने।
(११) आर्य बालिस्सह आचार्य सुहस्ति के स्वर्गवास के बाद गणाचार्य, वाचनाचार्य आदि परम्पराएँ संघ व्यवस्था और श्रुतसेवा की दृष्टि से प्रवर्तमान हुई । आर्य बालिस्सह गणाचार्य थे । आर्य महागिरि के स्वर्गगमन तथा दुष्काल आदि कारणों से नष्ट होते श्रुतज्ञान की सुरक्षा हेतु भिक्खुराय ने कुमारगिरि पर श्रुत सभा बुलाई उसमें २०० जिनकल्प, मुनि, ३०० स्थविर कल्प मुनि, ३०० साध्वियाँ, ७०० श्रावक तथा ७०० श्राविकाएं उपस्थित थीं। इस सभा में आर्य बालिस्सह प्रधान थे । ये पूर्वधर थे ।
(१२) आर्य इन्द्रदिन्न गणाचार्य की परम्परा में आर्य सुहस्ति के पट्टधर आर्य सुप्रतिबद्ध भी गणाचार्य थे, आर्य इन्द्रदिन्न इन्हीं के पट्ट पर वीर नि. संवत् ३३६ में पट्टासीन हुए ।
(१३) आर्य आर्यदिन्न गणाचार्य इन्द्रदिन्न के पट्ट को इन्होंने सुशोमित किया । ये गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे।
(१४) आर्य वज स्वामी (बहेर स्वामी जैन शासन को दैदीप्यमान करने वाले युग-प्रधान श्रेष्ठ आचार्यों में आचार्य वज्र स्वामी का नाम भी कम
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