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जैन परम्परा एक ऐतिहासिक यात्रा | ५०७
भी गोशालक का उबलता क्रोध थमा नहीं, वह महावीर को फिर अयोग्य बोलने मौन ही रहे, किन्तु "सुनक्षत्र" नामक मुनि चाह कर भी अपने आपको नहीं रोक किया, गोशालक ने अपनी निर्दयता और निम्नता का परिचय देते हुए किन्तु यह प्रहार पिछले प्रहार से मंद था, मुनि को दाह होने लगा, मुनि
इतने बड़े कुकृत्य के बाद लगा | उपस्थित अन्य मुनिगण तो सके। उन्होंने ज्यों ही गोशालक का प्रतिवाद तत्काल, उस मुनि पर भी 'तेजो' प्रहार किया, ने अन्तिम आलोचना करते हुए समाधिपूर्वक पण्डित मरण प्राप्त किया ।
दो मुनि को भस्मीभूत कर देने के बाद भी गोशालक वहाँ से नहीं हटा, उसे तो अभी अपने निशाने पर वार करना था, और उसका निशाना भगवान महावीर थे ।
प्रभु ने उसे सद्बोध देने को कुछ शब्द कहे कि उसे प्रभु पर वार करने का अवसर मिल गया । वह जाज्वल्यमान क्रोध में दहकता कहने लगा- महावीर 'अब तुझे जलकर भस्म होना है, ऐसा कहते ही' प्रभु पर तेजोलेश्या का भरपूर प्रहार किया, किन्तु प्रभु पर इस प्रहार का कोई असर नहीं हो सका । 'तेजोलेश्या' प्रभु के चारों तरफ प्रदक्षिणा कर जलती आग की तरह पुनः गोशालक की तरफ चली गई और उसी के शरीर में प्रवेश कर गई । फलस्वरूप उसका देह तेजोलेश्या के तीव्र दाह से जलने लगा ।
उसके शरीर में बड़ी वेदना होने लगी अतः अब वह वहां अधिक नहीं ठहर सका। जाते हुए उसने भगवान से कहा- मेरी लेश्या के प्रभाव से तुम छह माह में जल मरोगे, किन्तु प्रभु ने कहा- मैं तो अभी सोलह वर्ष विचरूंगा । तुम्हारी लेश्या के प्रति प्रहार से तुम्हें केवल सात दिन में ही मृत्यु पाना होगा ।
वास्तव में गोशालक सात दिन में तेजो दाह से जलता हुआ मृत्यु के मुख में चला गया । मृत्यु से पूर्व उसने भगवान महावीर की सच्चाई और अपने मिथ्या होने के सत्य को सार्वजनिक रूप से सच्चाई के साथ स्वीकार किया । स्वास्थ्य हानि
गोशालक के द्वारा तेजोलेश्या के प्रहार से तथा तत्कालीन असातावेदनीय के उदय से प्रभु के सुन्दर देह में 'रक्तातिसार' जैसी व्याधि का उदय हो गया ।
प्रभु के व्याधिग्रस्त होने से चतुविध संघ बड़ा चिन्तित था, किन्तु 'सिंह' नामक मुनि तो शोक संतप्त ही हो गये । भावी अनिष्ट की आशंका से 'सिंह' मुनि रो उठे। प्रभु ने उन्हें अपने पास बुलाकर समझाया और मेढिय ग्राम निवासिनी सुश्राविका 'रेवती' के यहाँ से 'बिजोरा पार्क' मंगवाकर सेवन किया और प्रभु स्वस्थ हो गये । के स्वास्थ्य लाभ से चतुर्विध संघ में हर्ष की लहर छा गई।
प्रभु
गौतम का समाधान
एक प्रश्न के उत्तर में प्रभु ने कहा कि गौतम! सर्वानुभूति मुनि आठवें देवलोक तथा सुनक्षत्र मुनि बारहवें देवलोक में, देवरूप में उत्पन्न हुए ।
जहाँ तक गोशालक का प्रश्न है, उसने अन्तिम समय में आत्म-आलोचना की थी । सत्य को स्वीकार किया था। अतः वह बारहवें देवलोक को प्राप्त हुआ। जन्मांतरों में दृढ़ प्रतिज्ञ मुनि बनकर आत्म-कल्याण साधेगा ।
शिव राजष, प्रभु के चरणों में
हस्तिनापुर का शासक सम्राट 'शिव' वैराग्याप्लावित हो कठोर तापस संयम की साधना करने लगा उसे विभंग अवधि ज्ञान हुआ था। वह सात समुद्र और सातद्वीप की प्ररूपणा करता था ।
एकदा प्रभु हस्तिनापुर पधारे। गौतम ने जब शिव राजर्षि की प्ररूपणा जनसमुदाय द्वारा सुनी तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने इस विषय में प्रभु से पूछा। प्रभु ने शिवर्षि के कथन को असम्यक् बताया और यह बात जब शिव ऋषि को ज्ञात हुई तो उन्हें अपने ही ज्ञान की परिपूर्णता में संशय होने लगा । वे भगवान महावीर के निकट पहुँचे । उनसे सम्यक समाधान पाकर वे प्रभु के पास दीक्षित हो गये ।
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