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________________ Jain जैन परम्परा एक ऐतिहासिक यात्रा | ४६७ करते अश्रुपूरित हजारों आँखें भगवान को अपलक नेत्रों से निहार रही थीं। प्रभु नितांत निर्मोह भाव में रमण 'हुए वन की ओर चले गये । उपसर्ग और भगवान का असीम धैर्य भगवान कुमारग्राम के बाहर ध्यानस्थ थे । वहाँ ग्वालों के बैल कहीं इधर-उधर चले गये। ग्वालों ने भी भगवान को ही चोर समझकर पीटना चाहा। किन्तु देवराज इन्द्र ने उपस्थित होकर ग्वालों को रोक दिया । देवराज इन्द्र ने भगवान से आग्रह किया कि हम आपके कष्टों का निवारण करते रहें, इसके लिए अनुमति दें ! इस पर प्रभु ने कहा -- जिन, स्वयं ही अपने कर्मों का क्षय कर सकते हैं, सब सहकर अपनी साधना सिद्ध करते हैं, वे किसी की सहायता नहीं लेते । कुछ विशेष प्रतिज्ञाएँ नहीं लिया । भगवान महावीर अपने साधना के क्षेत्र में प्रखर वीर की तरह उतरे उन्होंने कहीं भी दीनता का आश्रय "मोराक सन्निवेश" में एक आश्रम में ठहरे थे। कुलपति ने बड़े प्रेम से महावीर को निवासार्थं एक कुटिया दी थी। महावीर तो अपने ध्यान में मग्न थे, वे अपने देह की सुधि भी कम ही लेते तो कुटिया की तरफ उनका ध्यान होने का तो प्रश्न ही नहीं था । कुटिया के घासफूस को गोएं चरने लगीं तो तापस कुलपति ने महावीर को कहा- -आपको अपनी कुटिया की तो संभाल करनी चाहिए। कुलपति के कहने का आशय महावीर समझ चुके थे। उन्होंने वहाँ से विहार कर दिया और प्रतिज्ञाएँ कीं ( १ ) किसी को नहीं सुहाए, ऐसे स्थान पर नहीं रहूँगा । (२) सदा ध्यान करूँगा । (३) मौन रहेगा। (४) हाथ में आहार लूंगा । (५) गृहस्थों का विनय नहीं करूँगा । यक्ष का उपद्रव और स्वप्न भगवान अस्थिग्राम के बाहर शूलपाणी यक्षायतन में ठहरे थे । पुजारी इन्द्र शर्मा ने उपद्रव की आशंका व्यक्त की किंतु प्रभु निर्भय ध्यानस्थ हो गये । रात्रि के प्रथम प्रहर में ही यक्ष ने महावीर को कष्ट देना प्रारम्भ कर दिया। को शूल चुभोए, पिशाच बनकर नखों से महावीर के शरीर को नोंचा । सर्प बनकर उनके किंतु भगवान महावीर, सुमेरु की तरह अडिग रहे । भगवान की स्थिरता से 'यक्ष' का हृदय परिवर्तित हो गया। वह भगवान की को रात्रि के अन्तिम प्रहर में जब मुहुर्त भर रात्रि शेष रह गई तनिक निद्रा आई, उसमें दश स्वप्न देखे (१) पिशाच को हाथों से पछाड़ा । (२) तपुंस्कोकिला । (2) विविध स्कोकिल । (४) दो रत्न मालाएँ । (५) श्वेत गो वर्ग । (६) विकसित पद्म-सरोवर । (७) भुजाओं से महा समुद्र तैरा । (८) सहस्र किरण सूर्य देखा (e) अपनी आँतों से मानुषोत्तर पर्वत को वेष्टित किया । ≈ bagh, उसने हाथी बनकर महावीर अंग-प्रत्यंगों पर डंक लगाये Fre स्तुति करने लगा । भगवान {"m ffee 000000000000 Jhante 3. 000000000000 0000000002/ www.gammelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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