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जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ४८६
नब्बे करोड़ सागर के बाद भगवान सुविधिनाथ नवें तीर्थंकर हुए ।
नव करोड़ सागर के बाद दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ का अभ्युदय हुआ । एक करोड़ सागर में ६६ लाख भगवान श्रेयांसनाथ हुए।
इनसे ५४ सागर बाद भगवान वासु पूज्य बारहवें तीर्थंकर हुए । तीस सागर बाद श्री विमलनाथ नामक तेरहवें तीर्थंकर भगवान हुए । नव सागर बाद चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ का अभ्युदय हुआ । चार सागर बाद पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ हुए।
१६. तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ
२६ हजार एक सौ सागर कम होंगे। इतने समय बाद ग्यारवें तीर्थंकर
भगवान धर्मनाथ के बाद तीन सागर में तीन पल्योपम कम थे। इतने समय बाद भगवान शान्तिनाथ का अभ्युदय हुआ ।
परम पवित्र परमात्मा भगवान शान्तिनाथ का भरतक्षेत्र में किसी भी तीर्थंकर के नाम की अपेक्षा सर्वाधिक नाम जप होता है ।
'शान्ति' यह प्राणिमात्र की हार्दिक आकांक्षा की अभिव्यक्ति का शब्द है। भगवान शान्तिनाथ के रूप में होकर यह शब्द और अधिक महत्त्व पा गया ।
भगवान शान्तिनाथ का स्मरण करते ही परम शान्ति के मौलिक आदर्श का संदर्शन हो जाया करता है । सचमुच 'शान्ति' इस नाम में अद्भुत प्रेरणा है। इस कारण केवल मनचाही स्थिति के व्यक्तीकरण की इसमें सशक्तता होना नहीं, अपितु 'शान्ति' नामक तीर्थंकर के रूप में जो महामानव हो गया है उसका उदात्त चरित्र और उसे पाने की साधना आदि का समवेत सम्यक् बोध इस नाम के साथ रहा हुआ है ।
पुण्डरीकिणी नगर का राजा मेघरथ बड़ा दयालु और दृढ़धर्मी था । एक दिन गोद में आ बैठा । उसके पीछे एक वधिक दौड़ता हुआ आया। वह उस कबूतर को पाने की
ने कहा- कबूतर नहीं मिल सकता। बदले में तुम जो चाहो ताजा जो केवल इस कबूतर से मिल सकता है । मेघरथ ने अपना ताजा मांस ही दे देता हूँ । ऐसा कहकर तराजू धरने लगा ।
सो लो ! वधिक ने कहा- मुझे कहा- यदि तू ऐसा ही चाहता मँगाकर वह कबूतर के बराबर
थरथराता एक कबूतर उसकी चेष्टा करने लगा । मेघरथ मांस चाहिए और वह भी है तो लो मैं इसके बराबर अपना माँस काट-काटकर
दृश्य बड़ा रोमांचक था । हजारों व्यक्ति राजा को रोकने के यत्न में थे । किन्तु राजा के सामने शरणागत कबूतर की रक्षा का प्रश्न था ।
शरीर के कई अंग काटकर घर दिये। किन्तु कबूतर तुला ही नहीं । अन्त में स्वयं मेघरथ उस तराजू में बैठ जाते हैं । वधिक, मेधरथ की इस महान दयालुता को देख अत्यन्त प्रभावित हो अपने वास्तविक रूप में उपस्थित होता है । वह रूप देव का था। उसने कहा- मैं तुम्हारी करुणा का चमत्कार देखना चाहता था । सचमुच तुम करुणावतार हो, तुम्हारी जय हो। ऐसा कहकर देव निज स्थान पर गया । परम करुणा से मेघरथ ने शान्ति का महामार्ग प्राप्त
कर लिया ।
वही मेघ सर्वार्थ सिद्ध विमानवासी देव होकर व्यक्ति हो हस्तिनापुर के महाराजा विश्वसेन की महाराणी अचला की कुक्षि से एक दिव्य पुत्र के रूप में जन्मे, जिनका नाम 'शान्ति' रखा गया ।
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'शान्ति' नामकरण के पीछे भी यह रहस्य था कि हस्तिनापुर और आसपास में 'मृगी' नामक महामारी का बड़ा प्रकोप था। जब शान्तिनाथ गर्भ में आये तभी से महामारी का आतंक समाप्त होकर चारों ओर शान्ति व्याप्त हो गई । अतः उस पुत्र का नाम भी 'शान्ति' रखा गया ।
भगवान शान्तिनाथ का आयुष्य एक लाख वर्ष का था । उनमें से पच्चीस हजार वर्ष उन्होंने संयम में बिताये ।
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