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जीवन की अन्तर्यात्रा : मुनि 'कुमुद' | २३ ढालते रहना जीवन की एक महानतम विशेषता है जो बहुत कम व्यक्तियों में पाई जाती है। प्रवर्तक श्री उन्ही चन्द व्यक्तियों में से एक है ।
विगत पचास वर्ष की संयम पर्याय पर दृष्टिपात करने पर यह तथ्य सहज ही उजागर हो जाता है कि प्रवर्तक श्री ने अपने आपको "समय के अनुरूप बहुत मोड़ा ।"
केवल दो दशक पहले की ऐसी अनेकों घटनाएँ हैं जिनका अध्ययन करने से स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि प्रवर्तक श्री जैनधर्म की ही विभिन्न सम्प्रदाय जैसे तेरापन्थी, मूर्तिपूजक आदि के प्रति कतई उदार नहीं थे ।
सरदारगढ़, मोतीपुर, बोराणा, खेरोदा, घुलिया, देलबाड़ा, कुवारिया आदि स्थानों पर विभिन्न सम्प्रदायों के साधुओं से बड़ी चर्चाएँ कीं । चर्चाओं के लिए छपे हुए खुले चेलेन्ज पत्र भी मैंने छपे हुये देखे ! मेवाड़ में यत्र-तत्र साम्प्रदायिक विवाद होते ही रहते और प्रवर्तक श्री स्थानकवासी संघ को जबर्दस्त सैद्धान्तिक सम्बल प्रदान करते ।
अब जबकि समय ने पलटा खाया। देश में चतुर्दिक पारस्परिक सांमजस्य का वातावरण चला । स्थानकवासी समाज में संघ ऐक्य का बिगुल बजा और श्रमण संघ का गठन हुआ । विभिन्न सम्प्रदायों में भावात्मक ऐक्य को स्वीकार किया जाने लगा ।
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पारस्परिक कटुता को मिटाने का चतुर्दिक प्रयास होने लगा। एक-दूसरे के निकट आने लगे और सभी प्रवर्तक श्री ने भी युग के आह्वान को समझा । थी, वह भीषण थी, उसे मिटाना आसान नहीं था किन्तु उन्होंने विद्वेष को कम करने और मिटाने को आगे
को मिलकर रहने में ही भलाई नजर आने लगी, ऐसी स्थिति पारस्परिक कटुता जो बड़ी दूर से चली आ रही प्रवर्तक श्री ने सर्वप्रथम अपने विचारों को नई दिशा दी।
कदम बढ़ाया ।
यत्र-तत्र विभिन्न सम्प्रदाय के साधु-साध्वियों से मिलना, सह-प्रवचन करना, सांप्रदायिक विवाद कहीं खड़ा हो जाये तो उसे मेल-जोल पूर्वक मिटाना आदि प्रवृत्तियों से, मेवाड़ में सांप्रदायिक विद्वेष को नष्टप्रायः कर दिया ।
आज प्रवर्तक श्री मेवाड़ में, प्रेम की गंगा बहा रहे हैं। सांप्रदायिक सौहार्द का आज जो वातावरण मेवाड़ में व्याप्त है, उसका बहुत कुछ श्रेय पूज्य गुरुदेव श्री को है ।
दो दशक पहले के साम्प्रदायिक चर्चाओं के अग्रदूत महाराज श्री को आज स्नेह और सामञ्जस्य की बात करते देखता हूँ तो मन कह उठता है कि यही तो किसी विशिष्ट व्यक्तित्व का आन्तरिक सौन्दर्य है जो सामयिक आवश्यकता के अनुसार ढलता है ।
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जैसे कीचड़ जल से पैदा होता है और जल से ही साफ होता है । वैसे ही जो पाप दिल से पैदा होता है वह दिल से ही साफ होता है ।
- 'अम्बागुरु- सुवचन'
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