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________________ 0-0--0--0--0--0 श्री सौभाग्य मुनि 'कुमुद' [प्रधान संपादक-पू.प्र.अ. अभिनन्दन ग्रंथ] सृष्टिक्रम की दृष्टि से जैनधर्म अनादि होते हुए भी अवसर्पिणी एवं उत्सपिरणी काल की दृष्टि से उसका ? प्रारम्भ भी माना गया है। वर्तमान अवसर्पिणीकाल के सुदूर अतीत से लेकर आज तक की परम्परा का इतिवृत अपने आप में बहुत ही उलझा हुआ, अस्पष्ट और उतार-चढ़ाव से पूर्ण है। विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखे जाने पर तथ्यों की पुनरावृत्ति संभव है, अतः हमारे विद्वान लेखक श्री सौभाग्य मुनिजी 'कुमुद' ने, जो ग्रन्थ के प्रधान संपादक भी हैं, साथ ही इतिहास और परम्परा के अधिकारी विद्वान भी है। अनेक ऐतिहासिक खोजें व प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार । पर कठिन परिश्रम के साथ यौगलिक युग से वर्तमान I तक की ऐतिहासिक यात्रा का संक्षिप्त किन्तु सारग्राही १ वर्णन प्रस्तुत किया है। ०००००००००००० ०००००००००००० जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा ... यौगलिक युग जड़ और चैतन्य के संयोग से प्रवर्तमान यह विराट विश्व अनन्तकाल से विविध परिवर्तनों के बीच गुजरता चला आ रहा है। अनन्त युगों पूर्व भी ऐसा क्षण कभी नहीं आया कि यह नहीं था और अनन्त युगों के बाद भी ऐसा क्षण कभी नहीं आयेगा कि यह नहीं होगा। सदा सर्वदा प्रवर्तमान इस विश्व के काल का पर्यवेक्षण हम केवल उतना ही कर पाते हैं, जहाँ तक कि हमें कुछ जानने को मिल सके। कालचक्र समय को नापने-जानने का एक साधन है । समय की गतिविधि में उत्थान-पतन चलते रहते हैं । प्रकृति अपने आप में बनती-बिगड़ती रहती है, समय उसका साथी है। जहाँ तक बनने-बिगड़ने का प्रश्न है, यह भी मात्र परिवर्तन है, कोई बनाने वाला या बिगाड़ने वाला, एक नियामक नहीं है। विश्व में अनन्त अणु-परमाणु हैं, अनन्त जीवात्माएँ हैं । संयोग-वियोग की इनकी अपनी अलग-अलग कहानियाँ हैं । परिवर्तन के ये ही मूल हैं । अलग-अलग कोई एक सत्ता जिम्मेदार नहीं है। एक कालचक्र के दो विभाग हैं। एक उत्सर्पिणी दूसरा अवसर्पिणी के नाम से विख्यात है। इनमें प्रत्येक भाग के छह विभाग होते हैं। १. सुषमा-सुषम-चार कोडाकोड़ी सागर २. सुषम-तीन कोड़ाकोड़ी सागर ३. सुषम-दुःषम-दो कोड़ाकोड़ी सागर ४. दुषम-सुषम-४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर ५. दुषम-२१ हजार वर्ष ६. दुषमा-दुषम-२१ हजार वर्ष जब कालचक्र का उत्सर्पिणी काल चलता है तो दुषमा-दुषम यह पहला आरक होता है और सुषमा-सुषम अन्तिम । RI JHAN... Pr1 sa Jain Education international MEENA For Private Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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