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________________ * 000000000000 10000 ४८० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ तथा लोकमान्य तिलक व रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी वीर निर्वाण के उपलक्ष में दीपावली मनाना स्वीकार किया है। मार्ग स्टीवेन्सन ने इन्साइक्लोपीडिया आफ रीलिजन एण्ड इथिक्स माग ५, पृष्ठ ८७५ से ८७८ में दीपावली का प्रारम्भ वीर निर्वाण से बताया है । २४ यों २५०० वर्षों की लम्बी अवधि में इस पर्व का सम्बन्ध कई महापुरुषों से हो गया है। मान्यता है कि दयानन्द सरस्वती का स्वर्गवास, स्वामी रामतीर्थं की समाधिमरण इसी दिन हुआ था । प्राप्त मान्यताओं में सबसे प्राचीन मान्यता भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्त करने की है। प्रभु महावीर पर गणधर गौतम की अनन्य श्रद्धा थी। महावीर उसे जानते थे, इसलिए उन्होंने अपने निर्वाण से पूर्व गौतम को देवशर्मा के यहाँ प्रतिबोध देने भेज दिया था। वहीं गौतम को प्रभु के निर्वाण के समाचार मिले जिससे वे द्रवित हो गये । वे स्वयं को हतभागी समझने लगे। भावनाओं पर बुद्धि ने विजय प्राप्त की और उसी रात्रि में गौतम ने भी केवलज्ञान प्राप्त किया । २५ कार्तिक अमावस्या की मध्य रात्रि में भगवान महावीर का परिनिर्वाण हुआ और अन्तिम रात्रि में गौतम गणधर ने केवल ज्ञान, केवल दर्शन प्राप्त किया इसी कारण कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा गौतम प्रतिपदा के नाम से विश्रुत है । इसी दिन अरुणोदय के प्रारम्भ से ही अभिनव वर्ष का आरम्भ होता है । २६ भगवान के निर्वाण का दुःखद वृत्तान्त सुनकर भगवान के ज्येष्ठ भ्राता महाराज नन्दनीवर्धन शोक विह्वल हो गये । उनके नेत्रों से आँसुओं की वेगवती धारा प्रवाहित होने लगी, बहिन सुदर्शना ने उनको अपने यहाँ बुलाया और सांत्वना दी। तभी से भैया ज के रूप में यह पर्व स्मरण किया जाता है । २७ रक्षाबन्धन कुरु जांगल देश में हस्तिनापुर नामक नगर था । वहाँ के महापद्म राजा के दो पुत्र पद्मराज और विष्णु कुमार थे, छोटे पुत्र विष्णुकुमार ने पिता के साथ ही संयम स्वीकार कर लिया । उस समय उज्जयिनी में श्रीवर्मा राजा राज्य करते थे उनके बलि, नमुचि, वृहस्पति और प्रह्लाद चार मन्त्री थे । एक बार अकम्पनाचार्य जैन मुनि ७०० शिष्यों के साथ वहाँ आए। चारों मंत्री जैन मत के कट्टर आलोचक थे इसलिए आचार्य ने उनसे विवाद करने के लिए सभी मुनियों को मना कर दिया था, एक मुनि नगर में थे। उन्हें आचार्य की आज्ञा ज्ञात नहीं थी इसलिए मार्ग में आए चारों मन्त्रियों से श्रुत सागर मुनि ने शास्त्रार्थ किया । चारों को पराजित कर वे गुरु के पास गये । गुरु ने मावी अनर्थ को जान श्रुतसागर मुनि को उसी स्थान पर निशंक ध्यान लगाने का आदेश दिया। मुनि गये और ध्यान में लीन हो गये। चारों मंत्री रात्रि को वहाँ गये, उन्होंने तलवार से मुनि को मारना चाहा पर वन रक्षक देव ने उनको अपने स्थान पर यथास्थिति से कील दिया । अच्छी संख्या में लोगों के इकट्ठे होने पर वन रक्षक देव ने सारा वृत्तान्त सुनाया जिसे सुनकर राजा ने चारों को देश निकाला दिया । अपनी प्रतिभा का उपयोग करते हुए वे हस्तिनापुर पहुँचे और मन्त्री पद प्राप्त किया। एक बार मन्त्रियों ने राजा से किसी विशेष अवसर पर प्रसन्न कर इच्छानुसार वर लेने को राजी कर लिया। संयोग से ७०० मुनियों का यह संघ विचरते हुए हस्तिनापुर पहुँचा । मन्त्री बलि ने अपने अपमान का बदला लेने का अच्छा अवसर जान राजा से ७ दिन के लिए राज्य ले लिया । उसने मुनियों के निवास स्थान पर कांटेदार बाड़ बनाकर उनके विनाश के लिए नरमेध यज्ञ की रचना कर दी। इस प्रलयंकारी घटना से लोग दुःखी हो गये, परन्तु वे राज्य शक्ति के आगे कुछ करने में असमर्थ थे । उस समय मिथिलापुर नगर के वन में सागर चन्द्रमुनि को अवधिज्ञान से मुनियों पर आए इस मरणान्तिक उपसर्ग का ध्यान हुआ और वे हा ! हा ! महाकष्ट ! इस प्रकार बोल उठे । गुरुदेव ने स्थिति की गम्भीरता को समझा और उन्होंने अपने शिष्य पुष्पदत्त को आकाशगामी विद्या से धरणी भूषण पर्वत पर विष्णुकुमार मुनि के पास विपत्ति का वर्णन करने के लिए भेजा । वैक्रिय ऋद्धिधारी मुनि विष्णुकुमार तुरन्त हस्तिनापुर पहुँचे और पद्मराज के महलों में गये, बातचीत की किन्तु पद्मराज कुछ भी कर पाने में असमर्थ थे क्योंकि वे वचनबद्ध बने हुए थे । निदान उन्होंने ५२ अंगुल का शरीर धारण किया और नरमेध यज्ञ के स्थान पर बलि के पास गये, बलि ने उनका उचित सत्कार किया और दानादि से उनका सम्मान करना चाहा। विष्णुकुमार ने तीन पैर जमीन की मांग की, □的節 wwww.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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