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जैन संस्कृति के प्रमुख पर्वो का विवेचन | ४७७
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विचरण करते हुए उसी दिन ऋषभदेव हस्तिनापुर पधारे, नगरनिवासी आह्लादित हुए । भगवान परिभ्रमण करते हुए श्रेयांस के यहाँ पधारे । भगवान को देखकर श्रेयांस को जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। ऋषभदेव के दर्शन और चिन्तन से पूर्व भव की स्मृति उद्बुद्ध हुई५ स्वप्न का सही तथ्य ज्ञात हुआ। उसके हृदय में प्रभु को निर्दोष आहार देने की भावना उठी । संयोग से उसी समय सेवकों द्वारा इक्ष रस के घड़े लाये गये थे । कुमार प्रभु के सामने पधारे और आहार लेने की प्रार्थना की। प्रभु ने हाथ फैला दिये । श्रेयांस ने भाव विभोर हो अंजली में रस उड़ेल दिया । अछिद्र पाणी होने से एक बूंद रस भी नीचे नहीं गिरा । भगवान का यह वार्षिक तप अक्षय तृतीया को पूर्ण हुआ था । अहोदानं, की ध्वनि से आकाश गूंज उठा और देवों ने पंचदिव्य की वर्षा की । श्रेयांस इस युग के प्रथम भिक्षा दाता हुए तो प्रभु ने इस युग को प्रथम तप का पाठ पढ़ाया । प्रभु के पारणे का वैशाख शुक्ला तृतीया का वह दिन अक्षयकरणी के कारण संसार में अक्षय तृतीया या आखा तीज के नाम से प्रसिद्ध हुआ । उस महान दान से तिथि भी अक्षय हो गई । त्रिषष्ठि० पु० च०, कल्पलता, कल्पद्रुम कलिका तथा समवायांग में इस तिथि पर पूर्ण सामग्री उपलब्ध है। पर्युषण एवं संवत्सरी
जैन संस्कृति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पर्व संवत्सरी है। आत्मा को कम से मुक्त करने के लिए इसकी उपासना की जाती है । पर्युषण अत्यन्त प्राचीन काल से चले आ रहे हैं। संवत्सरी पर्युषण की अन्तिम तिथि है।
ऐसा माना जाता है कि भगवान पार्श्वनाथ के काल में चातुर्मास की समाप्ति भाद्रपद शुक्ला पंचमी को हो जाती थी, इस दृष्टि से इसे वर्ष का अन्तिम दिन माना जाता और इसी के अनुसार संवत्सरिक प्रतिक्रमण करने से यह पर्व संवत्सरी के नाम से प्रचलित हुआ । प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसपिणी आरों का प्रारम्भ भी भाद्रपद शुक्ला पंचमी को होता है।
कई आचार्य इसे शाश्वत पर्व मानते हैं, जम्बू द्वीप पन्नति में वर्णन आता है कि श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को उत्सर्पिणी काल का प्रथम व २१०० वर्ष बाद दूसरा आरा प्रारम्भ हुआ। पुष्कलावत महामेध के सात अहोरात्रि बरसने से धरती की तपन शान्त हुई फिर सात अहोरात्रि तक 'क्षीर' महामेघ बरसा जिससे भूमि के अशुभ वर्ण नष्ट हो गये और वेशुभ रूप में परिवर्तित हुए । सात दिन तक आकाश के खुले रहने के बाद सात दिन 'घृत' नामक महामेघ ने बरस कर धरती में सरसता का संचार किया, फिर 'अमृत' मेघ की सात दिन तक वर्षा हुई जिसमें वनस्पति के अंकुर प्रस्फुरित हुए, फिर आकाश के सात दिन निर्मल रहने के बाद 'रस' नामक महामेघ ने बरस कर वनस्पति में ५ प्रकार के रसों का संचार किया इस प्रकार वनस्पति मानव के भोग योग्य बनी। आरे के प्रारम्भ के ५०वें दिन बिल-गत मानव जब बाहर निकले तो धरती को हरी भरी देखकर उन्होंने समवेत स्वर में घोषणा की कि 'हे देवानुप्रिय ! आज से हममें से जो कोई अशुभ पुद्गलों का आहार करेगा उसकी छाया से भी हम दूर रहेंगे। इसके अनुसार मानवों में स्वतः सत्प्रेरणा का यह पर्व अनादि रूप से चला आ रहा है।
श्रमण भगवान महावीर ने वर्षावास के एक मास और बीस रात्रि बीतने पर तथा सत्तर रात्रि दिन शेष रहने पर पर्युषण पर्वाराधना की।
संवत्सरी शब्द मूल आगमों में कहीं-कहीं ही मिलता है। कुछ दिनों पूर्व आगम अनुयोग प्रवर्तक पं० मुनि श्री कन्हैयालाल जी म० सा० से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि 'पज्जुसणा' शब्द का अर्थ संवत्सरी में निहित है।
पर्युषण पर्व के दिनों में चारों जाति के देवता समारोहपूर्वक अठाई महोत्सव करते हैं।१० पर्युषण पर्वाराधना का उल्लेख कई आगमों में प्राप्त होता है, अधिकांश में आठ दिनों का स्पष्ट उल्लेख नहीं है संभव है कि भावनाओं को उच्चतम बनाने के लिए आठ दिन नियत किये गये हों । संवत्सरी को चूंकि जैन मान्यतानुसार वर्ष का अन्तिम दिन मानते है। इसलिए इसी दिन आलोचना पाठ तथा पाटावली पढ़ने सुनने की परम्परा है । स्थानकवासी समाज में अन्तकृत सूत्र तथा मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में कल्प सूत्र वाचन की परम्परा है । यो संवत्सरी भाद्रपद शुक्ला चौथ या पंचमी को कालगणना के अनुसार आती है, परन्तु ऐसा वर्णन भी मिलता है कि संवत्सरी की आराधना कालकाचार्य द्वितीय से पहले तक कालगणना के अनुसार भाद्रपद शुक्ला चौथ या पंचमी को ही की जाती थी।
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