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आचार्य हेमचन्द्र जीवन व्यक्तित्व एवं कृतित्व | ४५३
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देव की साधुदीक्षा के सम्बन्ध में प्रवन्धको प्रभावकारिता प्रत्यचिन्तामणि में कुछ प्रसङ्ग उपलब्ध होते हैं । प्रबन्धकोश (हेमसूरिप्रबन्ध) में राजशेखर ने लिखा है कि चङ्गदेव के मामा नेमिनाग ने आ०देवचन्द्र से धर्मसभा में चङ्गदेव का परिचय कराया। तत्पश्चात् नेमिनाग ने घर जाकर बहिन पाहिणी देवी से चङ्गदेव को साधु-दीक्षा दिलाने की प्रार्थना की। प्रभावक चरित के वर्णन के अनुसार माता जब अपने पुत्र के साथ देवमन्दिर गयी तो बालक चङ्गदेव आ० देवचन्द्र की गद्दी पर जा बैठा और आचार्यश्री ने पाहिणी को स्वप्न की याद दिलाकर पुत्र को शिष्य के रूप में मांग लिया । प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार एक समय आचार्य देवचन्द्र 'अणहिलपत्तन' नगर से प्रस्थान कर तीर्थयात्रा के प्रसङ्ग में धुन्धुका पहुँचे और वहाँ मोढ़वंशियों की वसही ( जैन मन्दिर) में देवदर्शन के लिए पधारे। उस समय शिशु चङ्गदेव खेलते-खेलते अपने साथियों के साथ वहाँ आ गया और अपने बालचापल्यस्वभाव से देवचन्द्राचार्य की गद्दी पर बड़ी कुशलता से जा बैठा । उसके शुभलक्षणों को देखकर आचार्य कहने लगे - ' यदि यह बालक क्षत्रिय कुलोत्पन्न है, तो सार्वभौम राजा बनेगा, और यदि यह वंश्य अथवा विप्रकुलोत्पन्न है तो महामात्य बनेगा और यदि कहीं इसने दीक्षा ग्रहण कर ली तो यह युग-प्रधान के समान अवश्य ही इस युग में कृतयुग की स्थापना करेगा ।"
चङ्गदेव से इस प्रकार प्रभावित होकर आ० देवचन्द्र ने यह बालक ( चङ्गदेव ) उसकी मां तथा अन्य सम्बन्धियों से मांग लिया और साधुदीक्षा देकर इसकी शिक्षा का उत्तम प्रबन्ध स्तम्भतीर्थ में उदयन मंत्री के घर पर किया । अल्पकाल में ही इन्होंने तर्क, लक्षणा और साहित्य विद्याओं में अपना अधिकार प्राप्त कर अनन्य पाण्डित्य एवं प्रवीणता प्राप्त कर ली। समस्त वाङ्मयरूप जलराशि को अगस्त्य ऋषि की भाँति आत्मसात् कर लिया। तत्पश्चात् मुनि सोमचन्द्र ने अपने गुरु आचार्य देवचन्द्र के साथ स्थान-स्थान पर परिभ्रमण कर अपने शास्त्रीय एवं व्यावहारिक ज्ञान में काफी वृद्धि की ११ और २१ वर्ष की अल्प आयु में ही मुनि सोमचन्द्र सभी शास्त्रों में तथा व्यावहारिक ज्ञान में परिपूर्ण हो गये । इसी समय वि०सं० १९६६ में इनके गुरु ने ३६ आचार्यों से विभूषित आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करके इन्हें 'हेमचन्द्र' नाम दिया जिससे ये आचार्य हेमचन्द्र कहलाये । ऐसा भी कहा जाता है कि मुनि सोमचन्द्र चन्द्रमा के समान सुन्दर थे और इनका शरीर सोने के समान तेजस्वी था तथा इनमें कुछ असाधारण शक्तियाँ भी विद्यमान थीं अतः इन्हीं सब कारणों से सोमचन्द्र को हेमचन्द्र कहा जाने लगा था । अस्तु, आचार्यपद भूषित हेमचन्द्र का पाण्डित्य, सर्वाङ्गमुखी प्रतिभा, प्रभाव एवं व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक एवं प्रभाव युक्त था । अतः इन्होंने अपने प्रभावी व्यक्तित्व एवं ओजस्वी तथा आकर्षक वाणी द्वारा समाज को अपनी ओर आकृष्ट किया और काफी लम्बे समय तक साहित्य एवं समाज की सेवा की।
कोश,
अगाध पाण्डित्य, अद्भुत प्रतिभा और गहन अध्ययन के फलस्वरूप इन्होंने व्याकरण,
छन्दशास्त्र, काव्य, दर्शन, योगशास्त्र, पुराण, इतिहास तथा स्तोत्र आदि विविध विषयों पर अपनी लेखिनी चलायी और प्रत्येक विषय पर बड़ी ही योग्यता पूर्वक लिखा 'साहित्य की विपुलता एवं विस्तार की दृष्टि से आचार्य हेमचन्द्र को यदि 'साहित्य सम्राट्' भी कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी । १२ इनके विद्वत्तापूर्णग्रन्थों ने डा० पिटर्सन महोदय को भी आश्चर्य में डाल दिया । डा० पिटर्सन महोदय ने इनको 'ज्ञान महोदधि' (Ocean of knowledge ) के विशेषण से अलंकृत किया है । सोमप्रभसूरि ने भी शतार्थकाव्य की टीका में लिखा है - 'जिन्होंने नया व्याकरण, नया छन्द शास्त्र, नया द्वयाश्रय, नया अलङ्कार, नया तर्कशास्त्र और नये जीवन चरित्रों को रचना की हैं, उन्होंने (हेमचन्द्रसूरि ने) किसकिस प्रकार से मोह दूर नहीं किया है ? 93
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अलङ्कारशास्त्र,
आ० हेमचन्द्र ने जिस विपुल साहित्य का प्रणयन किया वह समग्ररूप में तो प्राप्त नहीं होता तथापि विद्वानों का अनुमान है कि इन्होंने शताधिक ग्रन्थों का सृजन किया था। श्रद्ध ेय मुनिश्री पुण्यविजयजी ने हेमचन्द्र सूरि द्वारा प्रणीत २५ कृतियों के नाम गिनाये है उनमें सिमराब्दानुशासन, अभिधानचिन्तामणि, अनेकार्यसंग्रह, निषष्टुकोष, देशीनाममाला, सिद्धमलिगानुशासन धातुपारायण, योगशास्त्र, इवाययकाव्य, काव्यानुशासन, छन्दोऽनुशासन तथा त्रिषष्ठिशालाका पुरुष चरित आदि महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं । इन्होंने कुछ द्वात्रिंशिकाएँ तथा स्तोत्र भी लिखे हैं । श्रद्धय डा० आनन्दशंकर ध्रुव के अनुसार 'द्वात्रिंशिकाएं तथा स्तोत्र, साहित्यिक दृष्टि से हेमचन्द्राचार्य की उसम कृतियां हैं। उत्कृष्ट बुद्धि तथा हृदय की भक्ति का उनमें सुभग संयोग है ।' संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश इन तीनों भाषाओं पर
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