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जैन आगमों के भाष्य और भाष्यकार | ४५१ .
भाष्यगत मानी हैं, वे चूणि में हैं इससे जान पड़ता है कि भाष्यकार चूर्णिकार से पूर्ववर्ती हैं । इसमें हेतु विशुद्धि, प्रत्यक्ष-परोक्ष तथा मूलगुण और उत्तर गुणों का प्रतिपादन है । अनेक प्रमाणों से जीव की सिद्धि की गई है।
इस प्रकार आवश्यक, जीतकल्प, बृहत्कल्प, पंचकल्प, निशीथ, व्यवहार, ओघनियुक्ति, पिण्ड नियुक्ति, उत्तराध्ययन, दशवकालिक पर भाष्य प्राप्त होते हैं जिन पर हमने बहुत ही संक्षेप में चिन्तन किया है । इनमें से कुछ भाष्य प्रकाशित हो गये और कुछ भाष्य अभी तक अप्रकाशित हैं । भाष्य साहित्य में जो भारतीय संस्कृति, सभ्यता, धर्म और दर्शन व मनोविज्ञान का जो विश्लेषण हुआ है वह अपूर्व है अनूठा है ।
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१ विविधतीर्थकल्प, पृ०१६ २ जैन सत्यप्रकाश अंक १६६ ३ गणधरवाद प्रस्तावना, पृ० ३१ ४ (क) नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति, विद्याधराख्यान चतुर: सकुटुम्बान्, इभ्यपुत्रान्- प्रवाजितकान । तेभ्यश्च स्व-स्व नामा
ङ्कितानि चत्वारि कुलानि संजातानीति ।-तपागच्छ पट्टावली भाग १, स्वोपज्ञवृत्ति (पं० कल्याण विजय जी, पृ० ७१) (ख) जैन साहित्य संशोधक खण्ड २, अ० ४, पृ० १०
(ग) जैन गुर्जर कविओ, भाग २, पृ० ६६६ ५ जीतकल्प चूणि गा० ५-१० ६ पंचसता इगतीसा सगाणिव कालस्स वट्टमाणस्स ।
तो चेत्तपुण्णिमाए बुद्धदिण सातिमि णक्खते ।। रज्जे णु पासणपरे सी (लाइ) धम्मिणर वरिन्दम्मि ।
वलंभीणगरीए इयं महवि "मि जिणभवणे ।। ७ गणधरवाद प्रस्तावना, पृ० ३२-३३ ८ जैन-साहित्य का वृहदुइतिहास भाग ३, पृ० १३५
प्रकाशक-पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान जैनाश्रम वाराणसी ५ ६ प्रस्तुत चूणि जिनदास की चूणि व हरिभद्र की वृत्ति में अक्षरशः उद्धृत की गई। १० जीतकल्प सूत्र-स्वोपज्ञभाष्य सहित, प्रस्तावना, पृ० ४-५ ११ जीतकल्पभाष्य गा० १-५ १२ जीतकल्पभाष्य गा० २५८६-२५८७ १३ विशेषावश्यक भाष्य, जीतकल्प भाष्य, वृहद् लघुभाष्य व्यवहार भाष्य, ओघनियुक्ति लघुभाष्य, पिण्ड नियुक्ति भाष्य,
निशीथ भाष्य ये प्रकाशित हो गये हैं।
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