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४४६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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पंचकल्प महाभाष्य, पिण्ड निर्युक्त प्रभृति अनेक ग्रन्थों से गाथाएँ उद्धृत की हैं अतः यह एक संग्रह ग्रन्थ है ।१० मुख्य रूप से इसमें प्रायश्चित के विधिविधान हैं। भाष्यकार ने लिखा है-जो पाप का छेद करता है वह पायच्छित-प्रायश्चित है, या प्रायः जिससे चित्त शुद्ध होता है वह पच्छित-प्रायश्चित है ।११ जीत-व्यवहार का विवेचन करते हुए आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत ये पांच व्यवहार बताये हैं । जीतव्यवहार वह है जो आचार्य परम्परा से प्राप्त है, श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा अनुमत है, और बहुच तों द्वारा सेवित है । इस व्यवहार का आधार परम्परा है आगम नहीं । भाष्यकार ने प्रायश्चित का अठारह, बत्तीस, और छत्तीस स्थानों का वर्णन किया है। प्रायश्चित देने वाले की योग्यता अयोग्यता पर चिन्तन करते हुए लिखा है-प्रायश्चित देने की योग्यता केवली या चतुर्दश पूर्वधर में होती है किन्तु वर्तमान में उनका अभाव होने से कल्प (वृहत्कल्प) प्रकल्प (निशीथ) और व्यवहार के आधार पर प्रायश्चित दिया जा सकता है। चारित्र को विशुद्धि के लिए प्रायश्चित की अनिवार्य आवश्यकता है। प्रायश्चित देते समय दाता के हृदय में दयाभाव . की निर्मल स्रोतस्विनी बहनी चाहिए। जिसे प्रायश्चित देना हो उसकी शक्ति-अशक्ति का पूर्ण ध्यान होना चाहिए। आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य, और पारांचिक इन दस प्रकार के प्रायश्चित और उनके स्वरूप का विश्लेषण करते हुए अपराध स्थानों का भी वर्णन किया है। यह भी लिखा है कि 'अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित आचार्य भद्रबाहु तक प्रचलित थे। उसके पश्चात् उनका विच्छेद हो गया ।
जीतकल्प भाष्य आचार्य जिनभद्र की जैन आचार-शास्त्र पर एक महत्त्वपूर्ण कृति है इसमें किञ्चित मात्र भी सन्देह नहीं है। संघदास गणी
द्वितीय भाष्यकार संघदास गणी है। संघदास के जीवन वृत्त के सम्बन्ध में इतिहासकार मौन है। इनके माता-पिता कौन थे, कहाँ इनकी जन्मस्थली थी और किन आचार्य के पास प्रव्रज्या ग्रहण की आदि कुछ भी जानकारी नहीं मिलती है । आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजय जी म० के अभिमतानुसार संघदास गणी नामक दो आचार्य हुए हैं । एक आचार्य ने बृहत्कल्प-लघुभाष्य और पञ्चकल्प-महाभाष्य लिखा है। दूसरे आचार्य ने वसुदेवहिंडि-प्रथम खण्ड की रचना की है । भाष्यकार संघदास गणी 'क्षमाश्रमण' पद से विभूषित हैं तो वसुदेव हिडि के रचयिता 'वाचक' पद से अलंकृत हैं । दूसरी बात आचार्य जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण ने अपनी विशेणवती नामक ग्रन्थ में वसुदेव हिंडी नामक ग्रन्थ का अनेक बार उल्लेख किया है और वसूदेव हिंडि में जो ऋषम देव चरित्र है उनकी गाथाओं का संग्रहणी के रूप में अपने ग्रन्थ में प्रयोग किया है। इससे यह स्पष्ट है वसुदेव हिंडि के प्रथम खण्ड के रचयिता संघदास गणी आचार्य जिनभद्र से पहले हुए हैं।
भाष्यकार संघदास गणी भी आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण से पहले हुए हैं। जब तक अन्य प्रबल साक्ष्य प्राप्त न हों तब तक निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि संघदास गणी एक हुए हैं या दो हुए हैं। पर यह स्पष्ट है। संघदास गणी आगम साहित्य के मर्मज्ञ व छेदसूत्रों के तलस्पर्शी विद्वान थे। उनके जोड़ का और कोई भी छेद स्त्रज्ञ आचार्य आज के विज्ञों की जानकारी में नहीं है। वे जिस विषय को उठाते हैं, उसे उतनी गहराई में ले जाते हैं कि साधारण विद्वानों की कल्पना भी वहाँ नहीं पहुंच पाती। वृहत्कल्प-लघुभाष्य
वृहत्कल्प-लघुभाष्य संघदास गणी की महत्त्वपूर्ण कृति है । इसमें वृहत्कल्प सूत्र के पदों का सविस्तृत विवेचन है । लघुभाष्य होने पर भी इसकी गाथा संख्या ६४६० है। यह छह उद्देश्यों में विभक्त है । इसके अतिरिक्त भाष्य के प्रारम्भ में एक विस्तृत पीठिका है, जिसकी गाथा संख्या ८०५ है । प्रस्तुत भाष्य में भारत की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री का भी अङ्कन किया गया है। डा० मोतीचन्द्र ने इस भाष्य की सामग्री को लेकर अपनी पुस्तक 'सार्थवाह' में 'यात्री और सार्थवाह' का परिचय प्रदान करने के लिए उपयोग किया है। प्राचीन भारतीय संस्कृति की दृष्टि से इस भाष्य का विशेष महत्त्व है। जैन श्रमणों के आचार का सूक्ष्म एवं तर्क-पुरस्सर विवेचन इस भाष्य की प्रमुख विशेषता है।
पीठिका में मंगलवाद, ज्ञानपंचक, अनुयोग, कल्प, व्यवहार, प्रभृति विषयों पर प्रकाश डाला गया है । प्रथम
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