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0 श्री पुष्कर मुनि जी महाराज
[प्रसिद्ध वक्ता एवं राजस्थान केसरी]
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जैन सूत्रों के गरु-गंभीर रहस्यों का उद्घाटन करने वाले भाष्य, ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति और इतिहास के अक्षय कोष हैं।
प्रस्तुत में जैन सूत्रों के भाष्य एवं भाष्यकारों का ३ प्रामाणिक परिचय दिया है अधिकारी विद्वान् श्री पुष्कर ६ मुनिजी ने।
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जैन आगमों के
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भाष्य और भाष्यकार
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जैन आगम साहित्य ज्ञान-विज्ञान का अक्षय कोश है । उनके गुरु-गंभीर रहस्यों को जानना सहज नहीं है। उन रहस्यों के उद्घाटन के लिए प्रतिभामूर्ति आचार्यों ने समय-समय पर व्याख्याएँ लिखीं । व्याख्या साहित्य में सर्वप्रथम स्थान नियुक्तियों का है और उसके पश्चात् भाष्य-साहित्य का । नियुक्तियाँ और भाष्य ये दोनों प्राकृत-भाषा में पद्य बद्ध टीकाएँ हैं । अनेक स्थलों पर मागधी और शौरसेनी के प्रयोग भी दृष्टिगोचर होते हैं। मुख्य छन्द आर्या है । भाष्य साहित्य में अनेक प्राचीन अनुश्रुतियाँ, लौकिक कथाएँ और परम्परागत निर्ग्रन्थों के आचार-विचार की विधियों का प्रतिपादन किया है। भाष्यकारों में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण और संघदासगणी ये दो प्रमुख हैं। विशेषावश्यक भाष्य और जीतकल्पभाष्य ये आचार्य जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण की कृतियाँ हैं और वृहत्कल्प लघुभाष्य, पंचकल्प महाभाष्य ये संघदास गणी की रचनाएँ हैं । व्यवहार भाष्य और वृहत्कल्प-वृहद भाष्य के रचयिता कौन आचार्य हैं. इनका निर्णय अभी तक इतिहास कार नहीं कर सके हैं । विज्ञों का ऐसा अभिमत है कि इन दोनों भाष्यों के रचयिता अन्य आचार्य रहे होंगे। वृहद्भाष्य के रचयिता, वृहत्कल्प चूणिकार और वृहत्कल्प विशेष चूर्णिकार के पश्चात् हुए हैं। संभव है कि ये आचार्य हरिभद्र के समकालीन या कुछ पहले रहे हों। व्यवहार भाष्य के रचयिता आचार्य जिनभद्र से पहले होने चाहिए। जिनभद्रगणी
जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का जैन-साहित्य में विशिष्ट व गौरवपूर्ण स्थान है। उनकी जन्म-स्थली, माता-पिता आदि के सम्बन्ध में अन्वेषण करने पर भी सामग्री प्राप्त नहीं हो सकी है । विज्ञों की ऐसी धारणा है कि उन्हें अपने जीवन काल में विशिष्ट महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हुआ था। उनके स्वर्गवास होने के पश्चात् उनके महत्त्वपूर्ण मौलिक ग्रन्थों को देखकर गुणग्राही आचार्यों ने आचार्य परम्परा में स्थान देना चाहा, किन्तु वास्तविकता न होने से विभिन्नआचार्यों के विभिन्न मत प्राप्त होते हैं । यहाँ तक कि उनके सम्बन्ध में विरोधी उल्लेख भी मिलते हैं। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि १५वीं १६वीं शताब्दी की रचति पट्टावलियों में उन्हें हरिभद्र सूरि का पट्टधर शिष्य लिखा है। जबकि हरिभद्र सूरि जिनभद्र से सौ वर्ष के बाद में हुए हैं। . विशेषावश्यक भाष्य की एक प्रति शक सं० ५३१ में लिखी हुई वलभी के जैन भण्डार में प्राप्त हुई है, जिससे यह सहज ही ज्ञात होता है कि जिनभद्र का वलभी के साथ अवश्य ही सम्बन्ध रहा होगा ।
विविध तीर्थकल्प में आचार्य जिनप्रभ लिखते हैं कि जिनभद्र क्षमाश्रमण ने पन्द्रह दिन तक तप की साधना कर एक देव की आराधना की और उसकी सहायता से दीमकों द्वारा खाये गये महानिशीथ सूत्र का उद्धार किया इससे यह ज्ञात होता है कि उनका सम्बन्ध मथुरा से भी था।
डा० उमाकान्त प्रेमानन्द शाह को अंकोट्टक-अकोटा गाँव में ऐसी प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं जिन पर यह
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