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जैन योग के महान व्याख्याता- हरिभद्रसूरि | ४४१
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अत्यधिक महत्त्व है। जैनागमों में योग शब्द का प्रयोग ध्यान के अर्थ में किया गया है एवं ध्यान के लक्षण और प्रभेद आलम्बन आदि का पूर्ण विवरण आगमों में है । तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग विषयक अनेक ग्रंथ लिखे एवं एक नयी शैली में योग का निरूपण किया जो अनूठा था। उनके द्वारा रचित योग बिन्दु, योग दृष्टि समुच्चय, योग विशिका, योग शतक एवं योग षोडषक ग्रन्थों में जैन मार्गानुसार योग का वर्णन किया गया है । जैन शास्त्र में आध्यात्मिक विकास क्रम के प्राचीन वर्णन में चौदह गुणस्थानक पदस्थ, रूपस्थ आदि चार ध्यान रूप बहिरात्म आदि तीन ध्यानावस्थाओं का वर्णन मिलता है, पर आचार्य हरिभद्रसूरि ने जैनों के इस आध्यात्मिक विकास क्रम का योग मार्गानुसार वर्णन किया । इस वर्णन में उन्होंने जिस शैली का अनुसरण किया, उसके दर्शन अन्यत्र नहीं होते।
उन्होंने अपने ग्रन्थों में अनेक जैन जैनेत्तर योगियों का नामोल्लेख किया है जैसे गोपेन्द्र कालातीत, पतंजलि, भदन्त, भास्कर, बन्धु, भगवदत्त आदि । पंडित सुखलाल जी ने अपने योगदर्शन निबन्ध में वह स्वीकार किया है कि आचार्य हरिभद्रसूरि वर्णित योग वर्णन योग साहित्य में एक नवीन दिशा है ।
समराइच्चकहा महाराष्ट्री प्राकृत में लिखित है एवं कथा साहित्य में युगान्तरकारी है । उसमें वर्णित कथा गंगा के शान्त प्रवाह की मांति स्थिर तथा सौम्य रूप से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती है। पुरातत्त्ववेत्ता पद्मश्री जिन विजयजी के अनुसार साधारण प्राकृत समझने वाले व्यक्ति भी उसे आसानी से समझ सकते हैं।
एक जन श्रुति के अनुसार उन्होंने १४४४ प्रकरण ग्रन्थों का प्रणयन किया था, पर, मेरी मान्यता के अनुसार ये सब विषय होंगे जिन पर उनकी समर्थ लेखनी चली होगी । वास्तव में अपनी बहुमुखी प्रतिमा के कारण ये जैन धर्म के पूर्वकालीन तथा उत्तरकालीन इतिहास के मध्यवर्ती सभा स्तम्भ रहे हैं । संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं पर उनका समान अधिकार रहा है । जैन ग्रन्थों तथा उनके स्वयं के सन्दर्भो से उनके विषय में यह जानकारी मिलती है कि विद्वत्ता के अभिमान में उन्होंने एक बार प्रतिज्ञा की कि जिसका कहा उनकी समझ में नहीं आयेगा वे उसी के शिष्य बन जायेंगे । एक दिन वे जैन उपाश्रय के पास से निकल रहे थे, उस समय साध्वी याकिनी महत्तरा के मुख से निकली प्राकृत गाथा उनकी समझ में नहीं आई एवं वे तुरन्त अपनी प्रतिज्ञानुसार उनका शिष्यत्व ग्रहण करने के लिए तैयार हो गये। साध्वी याकिनी महत्तराजी ने उन्हें अपने गुरु आचार्य जिनभद्र से दीक्षा दिला दी पर, हरिभद्रसूरि ने याकिनी महत्तरा को सदैव अपनी धर्म जननी माना एवं अपने प्रत्येक ग्रन्थ की समाप्ति पर “याकिनी महत्तरा धर्म सूनु" विशेषण का प्रयोग किया है । इनका गच्छ श्वेताम्बर सम्प्रदाय का विद्याधर गच्छ था।
आचार्य हरिभद्रसूरि की विविधोन्मुखी रचना शक्ति इससे प्रकट होती है कि उन्होंने सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, अद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, जैन आदि सभी मतों की आलोचना प्रत्यालोचना की है। इस आलोचना प्रत्यालोचना की यह विशेषता है कि उन्होंने अपने विरोधी मत वाले विचारकों का भी नामोल्लेख बहुत आदर के साथ किया है। उनके प्रमुख ग्रन्थ निम्न है
१. अनेकान्त वाद प्रवेश २. अनेकान्त जय पताका-स्वोपज्ञ वृत्ति सहित ३. अनुयोगद्वार सूत्र वृत्ति ४. अष्टक प्रकरण ५. आवश्यक सूत्र-वृहद् वृत्ति ६. उपदेशपद प्रकरण ७. दशवकालिक सूत्र वृत्ति ८. दिङ्नाग कृत न्याय प्रवेश सूत्र वृत्ति ६. धर्म-बिन्दु प्रकरण १०. धर्म-संग्रहणी प्रकरण ११. नन्दी सूत्र लघु वृत्ति
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