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________________ 000000000000 000000000000 10004 ४३६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ एकांगी है । आचार्य सिद्धसेन ने द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक दृष्टि के आधार से कार्य और कारण का प्रस्तुत विरोध नष्ट किया । कारण और कार्य में द्रव्यार्थिक दृष्टि से कोई भेद नहीं है। पर्यायार्थिक दृष्टि से दोनों में भेद है । अनेकान्त दृष्टि से दोनों को सही माना जाता है । सत्य तथ्य यह है, कि न कार्य-कारण में एकान्त भेद है न एकान्त अभेद ही है । यही समन्वय का श्रेष्ठ मार्ग है । असत्कार्यवाद और सत्कार्यवाद ही सम्यक् दृष्टि है । ६ तत्त्व चिन्तन के सम्यक् पथ का विश्लेषण करते हुए उन्होंने आठ बातों पर बल दिया। वे आठ बातें यह हैं(१) द्रव्य, (२) क्षेत्र, (३) काल, (४) भाव, (५) पर्याय, (६) देश, (७) संयोग और ( 5 ) भेद । इन आठ में पहले की चार बातें स्वयं भगवान महावीर ने बताई हैं । उनमें पीछे की चार बातों का भी समावेश हो जाता है किन्तु सिद्धसेन ने दृष्टि और पदार्थ की सम्यक् प्रकार से व्याख्या करने के लिये आठ बातों पर प्रकाश डाला । nternational आचार्य सिद्धसेन पूर्ण तार्किक थे तथापि वे तर्क की मर्यादा समझते थे । तर्क की अप्रतिहत गति है, ऐसा वे. नहीं मानते । उन्होंने अनुभव को श्रद्धा और तर्क इन दो भागों में बाँटा । एक क्षेत्र में तर्क का साम्राज्य है, तो दूसरे क्षेत्र में श्रद्धा का । जो बातें विशुद्ध आगमिक हैं जैसे भव्य और अभव्य जीवों की संख्या का प्रश्न आदि, उन बातों पर उन्होंने तर्क करना उचित नहीं समझा । उन बातों को उसी रूप में ग्रहण किया गया । किन्तु जो बातें तर्क से सिद्ध या असिद्ध की जा सकती थीं उन बातों को अच्छी तरह से तर्क की कसौटी पर कस कर स्वीकार किया । अहेतुवाद और हेतुवाद ये धर्मवाद के दो प्रकार हैं । भव्याभव्यादिक भाव अहेतुवाद का विषय है, और सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि हेतुवाद के अन्तर्गत ।" आचार्य सिद्धसेन के द्वारा किया गया यह हेतुवाद और अहेतुवाद का विभाग हमें दर्शन और धर्म की स्मृति दिलाता है। हेतुवाद तर्क पर प्रतिष्ठित होने से दर्शन का विषय है और अहेतुवाद श्रद्धा पर आधृत होने से धर्म का विषय है। इस तरह आचार्य सिद्धसेन ने परोक्ष रूप में दर्शन और धर्म की मर्यादा का संकेत किया है। जैनागमों की दृष्टि से सर्वज्ञ के ज्ञान और दर्शन को भिन्न माना गया है किन्तु आचार्य सिद्धसेन ने तर्क से यह सिद्ध किया है, कि सर्वज्ञ के ज्ञान और दर्शन में कोई भेद नहीं है । सर्वज्ञ के स्तर पर पहुंचकर ज्ञान और दर्शन दोनों एकरूप हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त अवधि और मनः पर्यवज्ञान को तथा ज्ञान और श्रद्धा को भी एक सिद्ध करने का प्रयत्न किया। जैनागमों में विश्र ुत नैगम आदि सात नयों के स्थान पर छः नयों की स्थापना की। नैगम को स्वतन्त्र नय न मानकर उसे संग्रह और व्यवहार में समाविष्ट कर दिया । उन्होंने यहाँ तक कहा कि जितने वचन के प्रकार हो सकते हैं उतने ही मत-मतान्तर भी हो सकते हैं । अद्वैतवादों को उन्होंने द्रव्यार्थिक नय के संग्रह नय रूप प्रभेद में समाविष्ट किया । क्षणिकवादी बौद्धों की दृष्टि को पर्यायनयान्तर्गत ऋजु सूत्र नयानुसारी बताया । सांख्य दृष्टि का समावेश द्रव्यार्थिक नय में किया और काणाद दर्शन को उभयनयाश्रित सिद्ध किया । १० ज्ञान और क्रिया के ऐकान्तिक आग्रह को चुनौती देते हुए सिद्धसेन ने कहा कि ज्ञान और क्रिया दोनों आवश्यक ही नहीं परम आवश्यक है। ज्ञान रहित क्रिया व्यर्थ है और क्रिया रहित ज्ञान निकम्मा है। ज्ञान और क्रिया का समन्वय ही वास्तविक सुख का कारण है। जन्म मरण से मुक्त होने के लिये ज्ञान और क्रिया दोनों आवश्यक हैं । ११ इस प्रकार सन्मति तर्क में उन्होंने अपने विचारों को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया है । बत्तीसियाँ आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने बत्तीस बत्तीसियाँ रची थीं जिनमें से इक्कीस बत्तीसियाँ वर्तमान में उपलब्ध हैं । ये बत्तीसियाँ संस्कृत भाषा में रचित हैं। प्रथम की पाँच बत्तीसियाँ और ग्यारहवीं बत्तीसी स्तुति-परक है । प्रथम पाँच बत्तीसियों में श्रमण भगवान महावीर की स्तुति की गई है और ग्यारहवीं बत्तीसी में किसी पराक्रमी राजा की स्तुति की गई है। इन स्तुतियों को पढ़कर अश्वघोष के समकालीन बौद्ध स्तुतिकार मातृचेट रचित 'अध्यर्धशतक' और आर्यदेव रचित 'चतुःशतक' की स्मृति हो आती है । सिद्धसेन ही जैन-परम्परा के आद्य स्तुतिकार हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी दोनों बत्तीसियाँ सिद्धसेन की बत्तीसियों का आदर्श सामने रखकर ही रची है। यह उनकी रचना से स्पष्ट होता है । १२ आचार्य समन्तभद्र की 'स्वयंभूस्तोत्र' और युक्त्यनुशासन' नामक दार्शनिक स्तुतियां भी आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की स्तुतियों का अनुकरण है । 555F4M: For Private & Personal Use C
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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