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________________ जैन आगम और प्राकृत : भाषा-विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में एक परिशीलन | ४२७ ०००००००००००० ०००००००००००० दायक MAITAT ..... हमें विशेषरूप से द्वितीय विभाग-मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा-काल के सन्दर्भ में विचार करना है, जिसे प्राकृत-काल भी कहा जाता है । इसे भी तीन भागों में बाँटा गया है (१) प्रथम प्राकृत-काल (Early Middle Indo Aryan) (२) द्वितीय प्राकृत-काल (Middle Middle Indo Aryan) (३) तृतीय प्राकृत-काल (Later Middle Indo Aryan) प्रथम प्राकृत-काल में पालि और शिलालेखी प्राकृतों, द्वितीय प्राकृत-काल में मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची आदि साहित्यिक (जो आगे चलकर लोक-भाषा से साहित्यिक भाषा के रूप में परिवर्तित हो गई थीं) प्राकृतों तथा तृतीय प्राकृत-काल में अपभ्रंशों का स्वीकार किया गया है। आलोचना उपर्युक्त काल विभाजन में प्राकृतों को वैदिक व लौकिक संस्कृत के पश्चात् रखा है। जैसाकि पहले संकेतित हुआ है, प्राचीनकाल से ही एक मान्यता रही है कि प्राकृत संस्कृत से निकली है। अनेक विद्वानों का अब भी ऐसा ही अभिमत है। आर्य-भाषाओं का यह जो काल-विभाजन हुआ है, इस पर इस मान्यता की छाप है । यह आलोच्य है। वैदिक संस्कृत का का न लौकिक संस्कृत से पहले का है। वैदिक संस्कृत एक व्याकरणनिष्ठ साहित्यिक भाषा है। यद्यपि इसके व्याकरण सम्बन्धी बन्धन लौकिक संस्कृत की तुलना में अपेक्षाकृत कम हैं, फिर भी वह उनसे मुक्त नहीं है। वैदिक संस्कृत कभी जन-साधारण की बोलचाल की भाषा रही हो, यह सम्भव नहीं जान पड़ता । तब सहज ही यह अनुमान होता है कि वैदिक संस्कृत के समय में और उससे भी पूर्व इस देश में ऐसी लोक-भाषाएँ या बोलिय अवश्य रही हैं, जिन द्वारा जनता का व्यवहार चलता था। उन बोलियों को हम प्राचीन स्तरीय प्राकृतें कह सकते हैं । इनका समय अनुमानत: २००० ई० पूर्व से ७०० ई० पूर्व तक का माना जा सकता है । सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी इस ओर कुछ इंगित किया है। उन्होंने उन लोक-भाषाओं के लिए Primary Prakritas (प्राथमिक प्राकृतें) शब्द का व्यवहार किया है। इससे यह अनुमेय है कि ये जो लोक-भाषाएँ (बोलियाँ) या प्रथम स्तरीय प्राकृतें वैदिक संस्कृत या छन्दस् से पूर्व से ही चली आ रही थीं, उन्हीं में से, फिर जब अपेक्षित हुआ, किसी एक जन-भाषा बोली या प्राकृत के आधार पर वैदिक संस्कृत का गठन हुआ हो, जो वस्तुतः एक साहित्यिक भाषा है । बोली और भाषा में मुख्यतया यही अन्तर है, बोली का साहित्यिक दृष्टि से कोई निश्चित रूप नहीं होता क्योंकि वह साधारणत: बोलचाल के ही प्रयोग में आती है। जब लेखन में, साहित्य-सर्जन में कोई बोली प्रयुक्त होने लगती है तो उसका कलेवर बदल जाता है। उसमें परिनिष्ठितता आ जाती है ताकि वह तत्सम्बद्ध विभिन्न स्थानों में एकरूपता लिए रह सके । वैदिक संस्कृत इसी प्रकार की भाषा है । यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो प्राकृत की निकटता लौकिक संस्कृत की अपेक्षा वैदिक संस्कृत के साथ अधिक है। इस युग के महान् प्राकृत वैयाकरण, जर्मन विद्वान् डॉ० आर० पिशल (R. Pischel) के वैदिक संस्कृत तथा प्राकृत के कतिपय ऐसे सदृश रूप अपने व्याकरण में तुलनात्मक दृष्टि से उद्धृत किये हैं, जिनसे उपर्युक्त तथ्य पुष्ट होता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि साधारणतः भाषा वैज्ञानिक जिन प्राकृतों को मध्यकालीन आर्य माषाकाल में रखते हैं, वे द्वितीय स्तर की प्राकृतें हैं। प्रथम स्तर की प्राकृतें, जिनकी ऊपर चर्चा की है, का कोई भी रूप आज उपलब्ध नहीं है । यही कारण है कि अनेक भाषा-शास्त्रियों का उनकी और विशेष ध्यान नहीं गया। पर, यह, अविस्मरणीय है कि वैदिक संस्कृत का अस्तित्व ही इस तथ्य का सर्वाधिक साधक प्रमाण है। अब हम संक्षेप में इस मध्यकालीन आर्य भाषा-काल की या द्वितीय स्तर की प्राकृतों पर संक्षेप में विचार करेंगे। पालि पालि इस (मध्यकालीन आर्य भाषा) काल की मुख्य भाषा है। इसका समय ई० पूर्व ५वीं शती से प्रथम NRNET ...... .... - - :SBuestig.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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