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४२४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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प्रशस्ति की भाषा में यहाँ तक कहा गया है कि भगवान द्वारा अर्द्धमागधी में अभिव्यक्त उद्गारों को मनुष्यों के साथ-साथ देवता भी सुनते थे, पशु-पक्षी भी सुनते थे, समझते थे। क्योंकि वे भिन्न-भिन्न भाषाभाषियों के अपनीअपनी भाषाओं के पुद्गलों में परिणत हो जाते थे। यह भी कहा गया है कि अर्द्धमागधी आर्य भाषा है । देवता इसी में बोलते हैं।
इस सम्बन्ध में हमें यहाँ विचार नही करना है । अतएव केवल संकेत मात्र किया गया है। विशेषतः माषाविज्ञान या भाषा-शास्त्र के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में हम यहाँ संक्षेप में प्राकृत पर विचार करेंगे। आर्य भाषा परिवार और प्राकृत
विगत शताब्दी से संसार के विभिन्न देशों के विश्वविद्यालयों तथा विद्या केन्द्रों में भिन्न-भिन्न भाषाओं के वैज्ञानिक दृष्टि से समीक्षात्मक अध्ययन का विशेष क्रम चला है, जिसे भाषा-विज्ञान या भाषा-शास्त्र (Linguistics) कहा जाता है । वैसे देखा जाए तो हमारे देश के लिए यह कोई सर्वथा नवीन विषय नहीं है। व्युत्पत्ति-शास्त्र के महान् पण्डित यास्क, जिनका समय ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी माना जाता है, द्वारा रचित निरुक्त नामक व्युत्पत्ति शास्त्रीय ग्रन्थ से प्रकट है कि देश में इस विषय पर व्यवस्थित रूप में अध्ययन चलता था । निरुक्त विश्व-वाङ्मय में व्युत्पत्ति शास्त्र-सम्बन्धी प्रथम ग्रन्थ है। यास्क ने अपने ग्रन्थ में अग्रायण, औदुम्बरायण, और्णनाभ, गालव, चर्म शिरा, शाकटायन तथा शाकल्य आदि अपने प्राग्वर्ती तथा समसामयिक व्युत्पत्ति शास्त्र व व्याकरण के विद्वानों की चर्चा की है, जिससे अध्ययन की इस शाखा की और अधिक प्राचीनता सिद्ध होती है । यास्क ने अपने इस ग्रन्थ में १२६८ व्युत्पत्तियाँ उपस्थित की हैं, जिनमें सैकड़ों बहुत ही विज्ञान सम्मत एवं युक्ति पूर्ण हैं ।
अस्तु-पर, यह अध्ययन-क्रम आगे नहीं चला, अवरुद्ध हो गया, पिछली शताब्दी में जर्मनी व इङ्गलैण्ड आदि पाश्चात्य देशों के कतिपय विद्वानों ने प्रस्तुत विषय पर विशेष रूप से कार्य किया, जिनमें विशप काल्डवेल, जान बीम्स डी० ट्रम्प, एस० एच० केलाग, हार्नली, सर जार्ज ग्रियर्सन, टर्नर, जूल ब्लाक आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। डॉ० सर रामकृष्ण मंडारकर पहले भारतीय हैं, जिन्होंने आधुनिकता के सन्दर्भ में भाषा-विज्ञान पर कार्य किया।
इससे पूर्व प्राच्य-प्रतीच्य भाषाओं के तुलनात्मक एवं भाषा-शास्त्रीय अध्ययन के सन्दर्भ में जिनसे विशेष प्रेरणा प्राप्त हुई, उनमें सर विलियम जोन्स का नाम बहुत विख्यात है, वे कलकत्ता में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे। विद्या-व्यसनी थे। लैटिन, ग्रीक, गाथिक आदि प्राचीन पाश्चात्य भाषाओं के बहुत अच्छे विद्वान थे। हिन्दू लॉ के निर्माण के प्रसंग में उन्होंने संस्कृत पढ़ने का निश्चय किया। बड़ी कठिनाई थी, कोई भारतीय पण्डित तैयार नहीं होता था । अन्ततः बड़ी कठिनता से एक विद्वान् मिला, जिसके सर्वथा अनुकूल रहते हुए विलियम जोम्स ने संस्कृत का गम्भीर अध्ययन किया । पाश्चात्य भाषाओं के विशेषज्ञ वे थे ही, उनकी विद्वत्ता निखर गई। उन्होंने पुरानी पश्चिमी और पूर्वी भाषाओं के तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन-अनुसन्धान के परिणामस्वरूप ऐसे सैकड़ों शब्द खोज निकाले, जो सहस्रों मीलों की दूरी पर अवस्थित लैटिन, ग्रीक तथा संस्कृत के पारस्परिक साम्य या सादृश्य के द्योतक थे। अपनी अनवरत गवेषणा से प्रसूत तथ्यों के आधार या उन्होंने उद्घोषित किया कि जहाँ तक वे अनुमान करते हैं, संस्कृत, लैटिन, ग्रीक, गाथिक, काल्टिक तथा पुरानी फारसी आदि पश्चिमी एवं पूर्व भाषाओं के व्याकरण, शब्द, धातु, वाक्य-रचना आदि में इस प्रकार का साम्य है कि इनका मूल या आदि स्रोत एक होना चाहिए।
सर विलियम जोन्स का कार्य विद्वानों के लिए वास्तव में बड़ा प्रेरणाप्रद सिद्ध हुआ।
भाषा-विज्ञान का अध्ययन और विकसित होता गया। इसमें संस्कृत-भाषा बड़ी सहायक सिद्ध हुई । अपने गम्भीर अध्ययन-अन्वेषण के परिणामस्वरूप विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसार में सहस्रों की संख्याओं में प्रसूत भाषाओं के अपने-अपने भिन्न-भिन्न परिवार हैं । मुख्यतः एक ही स्रोत से एकाधिक भाषाएं निकलीं, उत्तरोत्तर उनकी संस्थाएँ विस्तार पाती गईं, परिवर्तित होते-होते उनका रूप इतना बदल गया कि आज साधारणत: उन्हें सर्वथा भिन्न और असम्बद्ध माना जाता है पर, सूक्ष्मता तथा गहराई से खोज करने पर यह तथ्य अज्ञात नहीं रहता कि उन माषाओं के अन्तरतम में ध्वनि, शब्द, पद-निर्माण, वाक्य-रचना, व्युत्पत्ति आदि की दृष्टि से बड़ा साम्य है । इसी गवेषणा के परिणाम-स्वरूप आज असन्दिग्ध रूप से यह माना जाता है कि परिचय की लैटिन, ग्रीक, जर्मन, अंग्रेजी आदि भाषाओं
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