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२२-३३, बारह भिक्षु प्रतिमाएँ निम्न हैं१२— १- मासिकी भिक्षु प्रतिमा
२ - द्विमासिकी भिक्ष, प्रतिमा
इसी प्रकार सातवीं सप्त मासिकी भिक्षु प्रतिमा ८. प्रथमा सप्त रात्रि दिवा भिक्षु प्रतिमा
६. द्वितीया सप्त रात्रि दिवा भिक्षु प्रतिमा
१०. तृतीया सप्त रात्रि दिवा भिक्षु प्रतिमा
११. अहो रात्रि की भिक्षु प्रतिमा
१२. एक रात्रि की भिक्षु प्रतिमा
३४-५८, पचीस प्रकार की प्रति लेखना, ६ वस्त्र प्रतिलेखना, ६ अप्रमाद प्रतिलेखना, १३ प्रमाद प्रतिलेखना
ये पच्चीस भेद प्रतिलेखना के हैं । १३
सत्तरी' कहते हैं।
चरण- सत्तरी
५६ ६३, पाँच इन्द्रियों का निग्रह ।
६४-६६, मन, वचन, काय गुप्ति ।
६७-७०, द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार अभिग्रह करना । ये सत्तर भेद हैं करण गुण के जिसे 'करण
चरण सत्तरी के सत्तर बोल निम्न हैं
जैन परम्परा में उपाध्याय पद | ४१६
वय समण धम्मं संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ । नाणाइतियं तब कोह निग्गहा इह चरणमेयं ॥
धर्मसंग्रह
चरण गुण का अर्थ है, निरन्तर प्रतिदिन और प्रति समय पालन करने योग्य गुण । साधु का सतत पालन करने वाला आचार है। इसके सत्तर भेद हैं
१-५ अहिंसा आदि पाँच महाव्रत,
६-१५, दस प्रकार का श्रमण धर्म
क्षमा, निर्लोमता, सरलता, मृदुता, लाघव, सत्य, संयम, त्याग, ब्रह्मचर्यं श्रमण धर्म के ये दस प्रकार हैं । १४ १६-३२, सत्रह प्रकार का संयम इस प्रकार । १५
(१-५) पृथ्वी, आप, तेज, वायु, वनस्पतिकाय संयम
(६-९) डीन्द्रिय, चीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रियसंयम
(१०) अजीवकाय संयम, वस्त्र पात्र आदि निर्जीव वस्तुओं पर भी ममत्व न करना, उनका संग्रह
न करना ।
(११) प्रेक्षा - संयम - प्रत्येक वस्तु को अच्छी तरह देखे बिना काम में न लेना ।
(१२) उपेक्षा-संयम - पाप कार्य करने वालों पर उपेक्षा भाव रखे, द्वेष न करे ।
(१३) प्रमार्जना संयम - अन्धकार पूर्ण स्थान पर बिना पुन्जे गति स्थिति न करना ।
(१४) परिष्ठापना संयम - परठने योग्य वस्तु निर्दोष स्थान पर परठे ।
(१५) मन संयम ।
(१६) वचन संयम |
(१७) काय संयम |
३३-४२, दस प्रकार की वैयावृत्य करना । १६ आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित, कुल, गण, संघ और साधर्मिक की सेवा करना ।
४३-५१, ब्रह्मचर्य की नव गुप्तियों का पालन करना । १७
(१) शुद्ध स्थान सेवन
(२) स्त्री-कथा वर्जन
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