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विश्वधर्मों के परिप्रेक्ष्य में जैन उपासक का साधना पथ : एक तुलनात्मक विवेचन | ३६५
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'पारमिता' शब्द पारम् +इता से बना है, अर्थात् पार पहुंची हुई अत्युत्कृष्ट अवस्था । महायान सम्प्रदाय में छः पारमिताएं मुख्य मानी गई हैं, जो निम्नांकित हैं
१. दान-पारमिता, २. शील-पारमिता (उत्कृष्ट सदाचार का पालन)-३. शान्ति पारमिता (क्षमाशीलता), ४. वीर्य पारमिता (अशुभ को त्याग कर शुभ के स्वीकार-हेतु अत्यन्त उत्साह), ५. ध्यान-पारमिता, ६. प्रज्ञा-पारमिता (सत्य का साक्षात्कार)।
बौद्ध धर्म का आचार की दृष्टि से सारा विस्तार इन तथ्यों पर हुआ है। इनके परिपालन की दृष्टि से बौद्ध साधक दो वर्गों में विभक्त है, भिक्षु और उपासक । भिक्षु इन आदर्शों का पूर्णतया पालन करने का संकल्प लेकर इस ओर उद्यमशील रहते हैं। वे स्वयं अपनी साधना में लगे रहने के साथ-साथ जन-जन को उस ओर अग्रसर करने के लिए उपदेश करते हैं। गृहस्थों या उपासकों के लिए भी अष्टांगिक मार्ग आदर्श है पर, वे उस ओर प्रयत्नशीलता की अवस्था में होते हैं, जबकि भिक्षु सम्पूर्णतः परिपालन की स्थिति में । भिक्षुओं के लिए आहार, विहार, मिक्षा, वस्त्र, अन्यान्य उपकरण आदि का ग्रहण, प्रयोग प्रभृति के सन्दर्भ में एक आचार-संहिता है, जिसका विनयपिटक में विस्तृत विवेचन है । बौद्ध परम्परा में 'विनय' शब्द आचार के अर्थ में है । “विनयपिटक' संज्ञा इसी आधार पर है । प्रव्रज्या सावधिक : निरवधिक
बौद्ध धर्म में एक विशेष बात और है। वहाँ भिक्षु-दीक्षा या संन्यास-प्रव्रज्या एकान्त रूप से समग्र जीवन के । लिए हो, ऐसा नहीं है । वहाँ दो प्रकार के भिक्षु होते हैं । एक वे, जो जीवन भर के लिए भिक्षु-संघ में आते हैं । दूसरे वे, जो समय-विशेष के लिए भिक्षु-जीवन में प्रवजित होते हैं। वह समयावधि वर्षों, महीनों अथवा दिनों की भी हो सकती है।
प्रत्येक बौद्ध उपासक अपने मन में यह आकांक्षा रखता है कि कम से कम जीवन में एक बार, चाहे थोड़े ही समय के लिए, भिक्षु बनने का सुअवसर उसे मिले । वह निर्धारित समय तक भिक्षु रहकर पुनः अपने गृहस्थ-जीवन में ससम्मान वापिस आ सकता है । वह तथा उसके पारिवारिक-जन अपना सौभाग्य मानते हैं कि कुछ समय तक तो एक व्यक्ति का जीवन भिक्षु के रूप में व्यतीत हुआ। वैदिक तथा जैन धर्म में ऐसा नहीं है। वहाँ सन्यास-दीक्षा जीवन भर के लिए होती है। उसे वापिस लौटना हेय माना जाता है। वैदिक धर्म में जब कोई व्यक्ति संन्यास में दीक्षित होता है, तो इस बात के प्रतीक के रूप में कि वह अपने विगत जीवन को समाप्त कर सर्वथा नये जीवन में जो पिछले से बिल्कुल अस्पृष्ट है, आ रहा है, अपनी चिता तैयार करता है, जिसका तात्पर्य है कि उसका पिछला शरीर भी जल गया है।
बुद्ध ने जो सावधिक भिक्षु-जीवन की स्वीकृति दी, उसके पीछे उनका यही अभिप्राय रहा हो कि थोड़े समय के लिए ही सही सद् वस्तु का ग्रहण तो हुआ । इस पर बुद्ध के मध्यम मार्ग के दार्शनिक चिन्तन का प्रभाव स्पष्टतया दृष्टिगत होता है । पर, एक बात अवश्य है, संन्यास की दिव्य तथा पावन स्थिति इससे व्याहत होती है। जो एक क्षण भी संन्यस्त जीवन के परवस्तुनिरपेक्ष सहज आनन्द का आस्वाद अनुभव कर चुका है, क्या वह उसे छोड़ सकता है, उधर से हट सकता है, यह बहुत गहराई से चिन्तन का विषय है। उपासक के कर्तव्य
मज्झिम-निकाय में जहाँ गृहस्थ (गृही उपासक) के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है, वहाँ चार कर्म-क्लेश बताये गये हैं। उन्हें कर्म-मल भी कहा गया है, जो इस प्रकार हैं
१. प्राणातिपात-प्राणियों का वध करना । २. अदत्तादान-किसी द्वारा नहीं दी गई वस्तु ग्रहण करना अर्थात् चोरी करना । ३. परदार-गमन । ४. मृषावाद-असत्य-भाषण करना ।
वहाँ पाप के चार स्थानों का भी वर्णन है, जो छन्द, द्वेष, मोह और भय के रूप में व्याख्यात हुए हैं । अर्थात् छन्द-राग, द्वेष, मोह तथा भय के कारण अनेकविध पाप-कर्मों में प्रवृत्त होना इन-इन स्थानों से सम्बद्ध माना गया है। वहीं पर छः अपाय-सुखों का वर्णन है ।
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