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अर्थात् अतिथि जिसके घर से निराश होकर लौट जाता है, वह उसे ( उस गृहस्थ को) अपना पाप देकर तथा उसका पुण्य लेकर चला जाता है ।
यदि सूक्ष्मता में जाएँ तो पता चलेगा कि इसके पीछे समाज विज्ञान की व्यापक भावना संलग्न है। यह स्वाभाविक है कि सर्वत्र प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। एक अपरिचित व्यक्ति किसी अपरिचित स्थान में किसी
अपरिचित व्यक्ति से स्नेह और श्रद्धापूर्वक सत्कृत और संपूजित होता है तो सहज ही उसके मन में यह भाव उभरता है कि उसके यहाँ भी कभी वैसा प्रसंग बनेगा तो वह सत्कार व आदर में कोई कमी नहीं रख छोड़ेगा। इससे मानव एक निःशंक तथा सुरक्षित भाव पाता हुआ सर्वत्र आ-जा सकता है, अपना कार्य कर सकता है। एक व्यापक मैत्रीभाव के उद्गम का यह सहज स्रोत है । इससे कोई भी व्यक्ति कहीं भी जाते हुए नहीं हिचकेगा कि वहाँ उसका कौन है ?
विश्वधर्मो के परिप्रेक्ष्य में जैन उपासक का साधना पथ एक तुलनात्मक विवेचन | ३६३
अतिथिर्वस्व भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते ।
स तस्मै दुस्कृतं दवा, पुष्पमादाय गच्छति ।
गृहस्थ और कर्म-योग
गीता में गृहस्थ को बड़ा मार्मिक कहा गया है कि यदि आसक्ति और मोह के बिना वह अपना कर्त्तव्य करता इससे उसकी आत्म-साधना भी सती जायेगी । उसका अनासक्त कर्म उसके लिए योग बन जायेगा । कर्म-योग के सन्दर्भ में श्रीकृष्ण ने बहुत जोर देकर कहा है कि जब तक देह है, इन्द्रियाँ हैं, तब तक कोई कर्म शून्य नहीं हो सकता अतः कर्म करने में अपनी पद्धति को एक नया मोड़ देना होगा, जो मोह, ममता और आसक्त भाव से परे होगा। इस प्रकार कर्म करता हुआ मनुष्य कर्मों के लेप से अछूता रहेगा ।
निष्कर्ष रूप में श्रीकृष्ण ने कहा है
बौद्धधर्म में गृही उपासक
व उपयोगी पथ-दर्शन दिया गया है। उसे जायेगा तो उसे समझ लेना चाहिए कि
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ योगस्यः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥"
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अर्थात् कर्म करने में तुम्हारा अधिकार है—तुम फल की आशा मत रखो। पर, साथ ही साथ यह भी ध्यान अकर्मण्य मत बनो । सङ्ग - आसक्ति या आशा छोड़कर तुम सफलता और असफलता की भी चिन्ता मत करो। दोनों में समान रहो। यह समत्व ही योग है ।
वैदिक धर्म के अनुसार गृही के साधक जीवन का यह संक्षिप्त लेखा-जोखा है। पारिवारिक जनों के प्रति कर्त्तव्य, देवोपासना, दान, सेवा आदि और भी अनेक पहलू हैं, जिनका गृहस्थ के जीवन से बहुत सम्बन्ध है। पर, यहाँ उनका विस्तार करने का अवकाश नहीं है ।
कर्म करने के अधिकारी हो, फल के नहीं। इसलिए कर्म के रखने की बात है कि कर्म फल की आशा तो छोड़ दो पर योगपूर्वक - अनासक्त भाव से, कर्त्तव्य-बुद्धि से कर्म करो ।
विवेचन का सारांश यह है कि वैदिक धर्म के अनुसार सांसारिक कर्त्तव्य और आध्यात्मिक साधना- - इन दोनों का समन्वित महत्त्व है । जैसे ब्रह्मचर्य यद्यपि आदर्श है पर गृही के लिए अपनी परिणीता पत्नी का सेवन धार्मिक दृष्टि से भी दोषपूर्ण नहीं है. तुकालाभिगमन तो विहित भी है। कहने का आशय यह है कि संसार और निवस दोनों का वहाँ स्त्रीकार है । यही कारण है कि वैशेषिक दर्शन में धर्म की परिभाषा करते हुए लिखा गया है"यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ""
अर्थात् जिससे लौकिक अभ्युदय या उन्नति तथा मोक्ष की सिद्धि हो, वह धर्म है ।
बौद्धधर्म में मज्झिम पडिपदा - मध्यम प्रतिपदा या मध्यम मार्ग कहा जाता है। भगवान बुद्ध ने अध्ययन तथा
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