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0 बसन्तकुमार जैन शास्त्री
गृहस्थ साधक (थावक) की उपासना विधि(प्राचार संहिता) पर जैनधर्म ने प्रारम्भ से ही बड़ा मनोवैज्ञानिक तथा समाजवादी चिन्तन किया है। विश्व के
विभिन्न धर्मों के परिप्रेक्ष्य में उसकी तुलनात्मक उप-1 १ योगिता पर एक चिन्तन यहाँ प्रस्तुत है ।
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विश्वधर्मों के परिप्रेक्ष्य में जैन उपासक का साधना-पथ : एक तुलनात्मक विवेचन
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सुख : छलना : यथार्थ
जागतिक भाषा में जिसे सुख कहा जाता है, तत्त्व की भाषा में वह सुख नहीं सुखाभास है। वह एक ऐसी मधुर छलना है, जिसमें निमग्न मानव अपने आपको विस्मृत किये रहता है । यह सब मानव को तब आत्मसात् हुआ, जब उसने जीवन-सत्य में गहरी डुबकियाँ लगाई । उसे अनुभूत हुआ, सुख कुछ और ही है, जिसका अधिष्ठान 'स्व' या आत्मा है । भौतिक पदार्थ तथा धन-वैभव आदि पर वह नहीं टिका है। इतना ही नहीं, वे उसके मार्ग में एक प्रकार का अवरोध है। क्योंकि इनमें सुख की कल्पना कर मानव इन पर अटकता है। उसकी सत्य-प्रवण गति कुण्ठित हो जाती है। जिसे हम सच्चा सुख कहते हैं, दर्शन की भाषा में मोक्ष, निर्वाण, ब्रह्मसारूप्य आदि शब्दों से उसे संशित किया गया है । तत्त्वद्रष्टाओं ने उसे अधिगत करने का विधि-क्रम भी अपने-अपने चिन्तन के अनुसार प्रस्तुत किया है, जिसे साधना या अध्यात्म-साधना कहा जाता है। भारत की गरिमा : साधना का विकास
___अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में भारत की अपनी गरिमा है, विश्व में उसका गौरवपूर्ण स्थान है । यहाँ के ऋषियों, मनीषियों और चिन्तकों ने इस पहलू पर बड़ी गहराई से चिन्तन किया । इतना ही नहीं, उन्होंने स्वयं सतत अभ्यास द्वारा इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण अनुभूतियाँ अजित की। उन द्वारा प्रदर्शित साधना पद्धतियों में इन सबका प्रतिबिम्ब हमें प्राप्त होता है। साधना के क्षेत्र में साधक की अपेक्षा से दो प्रकार का वर्गीकरण हुआ-संन्यासी, परिव्राजक या भिक्षु तथा गृही, गृहस्थ अथवा श्रावक या उपासक ।
प्रथम कोटि में वे साधक आते हैं, जो सम्पूर्णतः अपने को आत्म-साधना या मोक्ष की आराधना में लगा देते हैं । दैहिक किंवा भौतिक जीवन उनके लिए सर्वथा गौण होता है तथा (अध्यात्म) साधनामय जीवन सर्वथा उपादेय या मुख्य । दूसरे वर्ग में वे व्यक्ति लिये गये हैं, जो लौकिक (गार्हस्थ्य) जीवन में समाविष्ट हैं, साथ ही साथ आत्म-साधना के अभ्यास में भी जितना शक्य होता है, संलग्न रहते हैं।
इन दोनों वर्गों के साधकों अर्थात् साधुओं और गृहस्थों के साधना-क्रम या अभ्यास-कोटि पर हमारे देश के तत्त्व-चिन्तकों ने अत्यन्त मनोवैज्ञानिक दृष्टि से चिन्तन कर विशेष प्रकार की आचार संहिताएँ निर्धारित की हैं, जिनका अवलम्बन कर साधक अपने गन्तव्य की ओर सफलता पूर्वक अग्रसर होते जायं ।
भारतीय दर्शकों में जैन दर्शन का अनेक दृष्टियों से अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन साधना-पद्धति भी अपनी कुछ ऐसी विशेषताएँ लिये हुए है, जिनके कारण उसकी उपादेयता त्रिकालाबाधित है। प्रस्तुत निबन्ध में विभिन्न धर्मों
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